अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम
तुम कौन हो ख़ुद को बताओ तो तुम
रास्ते ख़ुद ब ख़ुद खुलते चले जायेंगे
दुनिया की नज़रों में उठ जाओगे तुम
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम
एक मरतबा अपनी क़द को देखो तो
कितने बड़े हो समझ भी जाओगे तुम
तुम्हारी सोच ने तुमको जकड़ रखा है
जो चाहोगे बस वही बन जाओगे तुम
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम
बड़ों से मुसल्सल गर इत्तेफ़ाक रखो
कोई मसला नहीं समझ पाओगे तुम
उनके पैरों तले जन्नत शिकस्त होगी
जन्नत को भी नसीब हो जाओगे तुम
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम
उनका अदब-अदब की इतलाह देगा
गर सुनो अदब को मिल पाओगे तुम
सोचो गर अदब तुम्हारे नसीब में हो
क्या कुछ करके नहीं दिखाओगे तुम
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम
कवि-शायर ये लोग अच्छे नहीं होते
इनको कभी नहीं समझ पाओगे तुम
ज़हर उगलने की जो आदत होती है
ज़हर पीकर शिवम् बन जाओगे तुम
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम
बड़ों और छोटों के बीच की जंग को
वैसे तो कभी नहीं समझ पाओगे तुम
यह जंग तो सिर्फ़ तजुरबों की ही है
अपने अहं का मसला न बनाओ तुम
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम
दूरी बीच की तुरन्त स्वाहा हो जाएगी
प्यार व सकून के संग रह पाओगे तुम
थोड़ी सी जगह दे दो टाँगे पसारने की
उनका मसला भी समझ जाओगे तुम
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम
क्या औलाद के दुश्मन हो सकते हो
अगर हाँ तो नहीं समझ पाओगे तुम
एक औलाद के क्या तात्पर्य होते हैं
क़ामयाब होकर समझ पाओगे तुम
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम
Poet: Amrit Pal Singh ‘Gogia’