Wednesday 13 February 2019

A-437 वक़्त के साथ 12.2.19--9.31 PM

वक़्त के साथ हमने बदलना छोड़ दिया 
लोगों के डर से संवरना जो छोड़ दिया 
लोग कहते हैं कि तुम पत्थर हो गए हो 
सच है झूठ का सच करना छोड़ दिया 

वक़्त के साथ हमने बदलना छोड़ दिया 

लोग इकट्ठे हो जाते हैं सहसा हादसे पे 
मैंने हादसों का ज़िक्र करना छोड़ दिया 
बर्फ़ के साँचे में ख़ुद को ही ढाल लिया 
हर बात पर हमने पिघलना छोड़ दिया 

वक़्त के साथ हमने बदलना छोड़ दिया 

अपनी सुरक्षा भी जब ख़ुद ही करनी है 
हमने तेरी इबादत का जीना छोड़ दिया 
अब अजनबी पर भरोसा मैं करता नहीं 
मैंने तुम्हारे भरोसे पर जीना छोड़ दिया 

वक़्त के साथ हमने बदलना छोड़ दिया 

नहीं अनुराग करना किसी भी बेवफ़ा से 
गलियों की टोली संग जाना छोड़ दिया 
बैठे गए शाख़ पर अब हम उल्लू बनकर 
उजाले में मैंने नज़रें मिलाना छोड़ दिया 

वक़्त के साथ हमने बदलना छोड़ दिया 

तुमको एक नज़र भर के जब देख लिया 
मैंने इस बात पर इतराना भी छोड़ दिया 
नदी ने भी तो समन्दर से मिलना ही था 
हमने अदब से दिल मिलाना छोड़ दिया 

वक़्त के साथ हमने बदलना छोड़ दिया 

मेरे कितने गुनाह हुए इसका पता नहीं 
गोगिया ने खाता रखना ही छोड़ दिया
कैसा हिसाब कि स्वर्ग कहाँ मिलता है 
मैंने पंडितों से ईर्ष्या करना छोड़ दिया  

वक़्त के साथ हमने बदलना छोड़ दिया 


Poet: Amrit Pal Singh ‘Gogia’

Thursday 7 February 2019

A-436 तेरी तस्वीर 6.2.19--3.05 A

तेरी तस्वीर से ही काम चला लेता हूँ 
जब बिगड़ जाए तो नई बना लेता हूँ 
अक़्स दिख जाये जब तेरा आइने में 
मैं अक्सर उसे सीने से लगा लेता हूँ 

इश्क़ मोहब्बत की बातें होती हैं जब 
तुम्हें तेरी तस्वीर से निकाल लेता हूँ
बातें करते-करते ख़त्म हो जाएं जब 
तेरी सूरत पर ही नज़रें टिका लेता हूँ

हुस्न चाहिये और क़द्र बहुत करता हूँ 
इसीलिए तुझे मैं अपना बना लेता हूँ 
लज्ज़ा हद से पार तो हो ही जाती है 
ख़ुद की गलती ख़ुद ही सज़ा लेता हूँ 

अपना कहूँ फिर भी बिगड़ जाये ग़र 
तो मैं ख़ुद को ख़ुद से गिरा लेता हूँ 
दूर जाते ही एक कसक सी उठती है 
दर्द को बहुधा सीने में छिपा लेता हूँ 

जिरह करने वाला कोई भी नही होता 
कोई भी रूठे खुद को ही मना लेता हूँ 
लकीरों से बाक़ायदा दोस्ती निभाकर 
तेरी मुस्कान भरी तस्वीर बना लेता हूँ

धीरे-धीरे तुझसे मोहब्बत हो चली है 
इस एहसास को तुमसे छिपा लेता हूँ 
छूट न जाये हाथों से तेरा दामन कहीं 
इसीलिए दामन को ही दबा लेता हूँ 

अक्सर सोचता हूँ तू होती ही न अगर 
फिर ख़ुद को ख़ुद ही समझा लेता हूँ 
जमीन को आसमां से मिलता देखकर 
मैं भी अपना सर गर्व से उठा लेता हूँ 

अमृत पाल सिंह 'गोगिया'