रूठ गया है क्या जन्म दिन हमारा
उसको बार बार मनाते ही क्यों हो
इतने बल्बों की रोशनी में भी तुम
रस्मी मोमबत्ती जलाते ही क्यों हो
जो दिन अंग संग होना चाहिये था
उससे बिछुड़ कर जाते ही क्यों हो
सुबह आलस से बिछुड़ना चाहते हो
उसी को गले से लगाते ही क्यों हो
जीवित वही है जो जीवित रहता हो
अकड़ में अक़्स छिपाते ही क्यों हो
अपने पर भरोसा ज़रा कर के देखो
झूठा ढाढस तुम बंधाते ही क्यों हो
बहुत ख़ास बन जाता है जब दिन
पर उसको तुम मनाते ही क्यों हो
सोकर उठ जाना एक करिश्मा है
इसको तुम भूल जाते ही क्यों हो
हर श्वांस स्वयं में ही चमत्कार है
फिर केवल मुस्कुराते ही क्यों हो
जिस श्वांस का भरोसा भी नहीं है
उसीपर भरोसा जताते ही क्यों हो
हमने ख़ुद को कभी जाना ही नहीं
लोगों का लुत्फ़ उठाते ही क्यों हो
अपनी सम्पदा को झाँक कर देखो
इसको ख़ुद से छिपाते ही क्यों हो
कब से घूम रहे शंका के इर्द गिर्द
उसके आँगन मंडराते ही क्यों हो
ऐसे गुजरने का सबब कुछ तो हो
अच्छे भले बहक जाते ही क्यों हो
ख़ुदग़र्ज़ हुई ज़िन्दगी बुरा क्या है
ख़ुदग़र्ज़ी तुम छिपाते ही क्यों हो
खुदगर्ज़ गुफ़ा रिश्तों का भण्डारा
सोचो न! भला निभाते ही क्यों हो
Poet: Amrit Pal Singh Gogia
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