Saturday 28 May 2016

A-060 कैसे इंकार करोगे 29.5.16—5.07 AM

A-060 कैसे इंकार करोगे 29.5.16—5.07 AM

क्या बात करोगे किसकी बात करोगे 
वही पुराना कचरा फिर आबाद करोगे 
कितना गुमाँ है न तुम्हें अपने होने का 
फिर भी कुछ न कुछ फरियाद करोगे 

कितना दम भरते हो न अपने होने का 
फिर कैसे किसी से मुलाकात करोगे 
ख़ुद को भी तुमने कभी जाना ही नहीं 
फिर कैसे ख़ुद से कभी प्यार करोगे 

औरों की शिकायत में लगे रहते हो 
अपनी छोड़ औरों की बात करोगे 
सब कुछ औरों से ग्रहण किया है 
उनके ही योगदान से इन्कार करोगे 

तेरा क्या है जो तुम मान करते हो 
वही घिसे-पिटे का इज़हार करोगे 
जो इंगित करोगे पुराना ही तो है
कैसे तुम नये का निर्माण करोगे 

ख़ुद पर ख़ुद को भरोसा ही नहीं है
किसी पर कैसे तुम एतबार करोगे 
ख़ुद से कभी प्यार किया ही नहीं 
औरों के संग कैसे इज़हार करोगे 

अपनी जुबां पर ताला लगा रखा है 
औरों से कैसे तुम वार्तालाप करोगे 
बहकते कदमों से पहुंचे हो निर्लज्ज 
किसी पुरानी मंज़िल की बात करोगे 

शपथ संयम क्रिया कर्म सब पुराने हैं 
कुछ नये का कैसे आविष्कार करोगे 
याद करो जो पहली बार मिला था  
आज भी कैसे उसका इज़हार करोगे 

चलो आज हम थोड़े पागल हो जायें  
असामान्य होने में ज़रा भी न घबरायें 
पद्द चाप सुनेगी औरों से दिल मिलेंगे 
तब जाकर कहीं दिल में फूल खिलेंगे 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

Friday 27 May 2016

A-143 हर शाख के पत्ते 27.5.16—7.38 AM

हर शाख के पत्ते 27.5.16—7.38 AM

हर शाख के पत्ते मुस्करा रहे थे
लहलहाते शोर मचाते गा रहे थे
नयी ऋतु गयी है बता रहे थे
हर पल का नृत्य गुनगुना रहे थे

कोई गम था कि क्या छूट गया
कोई गम था कि क्या टूट गया
कोई रोष था तूफ़ान के आने का
  रोष था उनको पटक गिराने का

आज भी कुछ बृक्ष हैं जो बुझे पड़े हैं
आज भी पुरानी खलों से जुड़े पड़े हैं
आज भी सूखी टहनी पकड़ बैठे हैं
नहीं छोड़ते खाड़कू से अकड़ बैठे हैं

सालों साल लग गए संभल बैठे हैं
कुछ छूट जाये सफल बन बैठे हैं
बोझ कन्धों पर इतना डाल लिया है
कंधे भी उनके जमीं तक झुके बैठे हैं

गर्दन भी जमीं में घुसी जा रही है
बोझिल आँखें सिकुड़ी जा रही हैं 
आस पास मेढक भी टर्राने लगे हैं
मौसम बदल गया बताने लगे हैं

नयी जिंदगी इशारे भी दिखा रही है
मुझे फिर भी समझ नहीं रही है
वट बृक्ष की जड़ें जितनी मौजूद हैं
पकड़ मेरी भी इतनी ही मजबूत है

कहीं कहीं से निकल ही आती है
और फिर लोगों को यह बताती है
देखो मैं मौजूद हूँ हर हालात में हूँ
बिना मिले हुए हर मुलाकात में हूँ

सब जानते हुए कि एक जज्बात है
मुश्किल यह कि जानता हर बात है
नया करने को "पाली" छोड़ना होगा
नयी डगर को रास्ता मोड़ना होगा …..
नयी डगर को रास्ता मोड़ना होगा …..

Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”