मैं तुमको ढूँढता रहा मंदिर व शिलाओं में
कहीं छुप बैठे तुम मौसम की फ़िज़ायों में
झलक मिलती थी सावन की अदायों में
रिमझिम हो बरसते तुम छुपते घटायों में
मैं तुमको ढूँढता रहा माँ के सौम्य रूप में
मातृ नयन अधर मुस्कान सुंदर स्वरूप में
उसका प्यार बने सघन ममता के रूप में
बसे हर मन चले बस करुणा स्वरूप में
मैं तुमको ढूँढता रहा पितृ सघन मन में
बलिष्ट आलिंगन सुन्दर सुडौल तन में
उनके चरणों और उनकी धूल कण में
विशाल काया व समर्पित भूमि रन में
मैं तुमको ढूँढता रहा गुरुकुल द्वार में
गुरु चरणों में बसे अहमं निस्तार में
वर्षों से खड़े हैं एक लंबी कतार में
समर्पण भाव रख दर्शन व दीदार में
थक हार बैठा शून्य हो तेरे द्वार पर
अब किसी पर और न ऐतबार कर
मिल भी जाये कोई न इजहार कर
मिले तो सही मगर खुद को हारकर ..
मिले तो सही मगर खुद को हारकर
Poet: Amrit Pal Singh Gogia
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