Monday 23 April 2018

A-361 परिवार 17.4.18–6.41 AM

A-361 परिवार 17.4.18–6.41 AM  

परिवारों के मसले उलझते जा रहे हैं 
यह हम नहीं हमारे आँकड़े बता रहे हैं 

जिन्होंने अपनी ज़िंदगी कुर्बान कर दी 
आज हम उन्हीं बुज़ुर्गों को सता रहे हैं 

जिनके बिना बचपन अधूरा था कभी 
आज उन्हीं को बचपना सिखा रहे हैं 

नहीं संभव होते फैसले जिनके बिना
आज अपने फैसले उनको सुना रहे हैं 

जो कभी घर की शान हुआ करते थे 
आज वही बृद्ध आश्रम को जा रहे हैं 

घर में जगह चाहिए मेहमानों के लिए 
इसीलिए वो घर से निकाले जा रहे हैं 

नहीं रहा अब माँ बाप का हक़ कोई 
इसीलिए उनको कचहरी दिखा रहे हैं 

जिन्होंने खून से सींचा था घर अपना 
आज उन्हीं को खून से नहला रहे हैं 

आँसुओं ने छोड़ दिया साथ मुक़म्मल 
व्यस्त हो गए हैं ख़ुद को समझा रहे हैं 

दादा दादी पढ़ा न दें पाठ पुराना कोई 
इसीलिए बच्चों को भी दूर भगा रहे हैं 

बच्चों की नियति पर कोई शक नहीं 
वो भी शायद अपना फर्ज़ निभा रहे हैं 

मिलने आ जायेंगे गर वक़्त मिला तो 
हँसते हुए चेहरे उनको ही चिढ़ा रहे हैं 

परिवार का मतलब ही एक होना था 
आज हम सभी एकल होते जा रहे हैं 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

Friday 20 April 2018

A-359 बेख़ौफ़ 19.4.18–9.05 AM

A-359 बेख़ौफ़ 19.4.18–9.05 AM

अब तो पीने से भी शरूर आता नहीं 
वो आ जायें तो दिल को क़रार आ जाये 

उनकी क़दमों की आहट में वो जादू 
सुन सकूं ग़र मैं दिल को प्यार आ जाये 

पायल उनकी खनके तरन्नुम में जब 
संगीत को बरबस उनकी याद आ जाये 

ढूँढते रहे सहरा में मिल जाए उन सा 
दिल की ठंडक बन ठंडी ब्यार आ जाये 

उनके होने में सारा जहां सिमट जाये
गले लग जायें तो सिमट बहार आ जाये 

बेख़ौफ़ होकर चल अब तू भी “पाली”
गले लगने को खुद तेरी सरकार आ जाये 



Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

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Tuesday 17 April 2018

A-170 नन्हियों का दर्द 18.5.16--10.09 AM

मना किया था तुम कभी मत आना 

तेरे आने से हम कितना चकरा गए 

किसी ने देख लिया तो क्या कहेंगे 

इतनी सी बात और आंसू बहा गए 


मैंने तो केवल चुम्बन ही किया था 

मेरे मन तन हज़ारों प्रश्न मंडरा गए 

किस-किस को जवाब देता फिरूं

जिस के आने से खुशियाँ नहा गए 


गम की सदा खुशियों का पपीहा 

ज़िन्दगी में जीने के आभास पा गए 

बरसों इंतज़ार किया जिस पल का 

उस पल के हर पल में ही समा गए 


तेरे आने में सुकूँ आया ख़लकत में 

राखी बाँधने वाले नन्हे कर गए 

किसी की हमनशीं बनकर मंडराये 

नये सम्बन्ध बनते हुए नज़र गए 


किसी को बेटी वसुन्धरा बन मिले 

किसी की आँचल में वत्स गए 

तेरी किलकारियां जहाँ-जहाँ गूँजे 

नियति के दरवाजे समस्त गए 


एक और बेटी को जो रास्ता मिला 

सच है कि थोड़ा हम भी घबरा गए 

बेटियों का भार ऊपर से मैं अबला 

दान दहेज़ के सोच हमको डरा गए 


तीसरी बार तो समझो हद हो गयी 

लक्ष्मी जी जैसे साक्षात ही गए 

बात लक्ष्मी तक होती तो ठीक थी 

आज के हालात मुझको हिला गए 


समाज की रचना की बात करते हैं  

इंसाफ़ के तराजू से ख़ुद शर्मा गए 

चंद लोगों से जिन्दा थी इंसानियत   

चंद लोगों को तो लोग ही खा गए 


गुंडा गर्दी के अश्क पोछे नहीं जाते 

कितने रावण मिल राक्षस गए 

नवरात्रों में पूजी जाने वाली कन्या 

सामग्री बन कर थाली में समा गए 


हम कहाँ से चल कर कहाँ पहुंचे हैं 

रास्ता भूल गए हम स्वयं घबरा गए 

नहीं चाहिए मुझे अब बेटी पुरस्कार 

बेटे की चाह में बेटी को ही खा गए 


ढिंडोरा झूठा पीटते अपना होने का 

नसीहत देते-देते और अब कहाँ गए 

'पाली' मासूम नन्हियों का दर्द देख 

हम बेशर्म निकले हालात शर्मा गए 


अमृत पाल सिंह 'गोगिया'