A-371 कुहासा-29.5.18--2.22 AM
दाँत किटकिटाने लगे दिल जब मुस्कुराने का
रोमांच होता हो जब वक़्त हो जाये नहाने का
रोंगटे खड़े होने लगे सिहरन भी जब होने लगे
याद आ जाये तब सृष्टि से रिश्ता निभाने का
दिल भी करता हो जब उठकर मुकर जाऊँ मैं
ढूँढ़ रहा हो सहारा किसी अन्जाने बहाने का
कम्बल भी न छूटे और अंग अंग सिहरने लगे
तब सच्चा मजा है कंबल से लिपट जाने का
कम्बल छोड़ हम जब कंबल से निकलने लगे
मज़ा आ जाता है चाय की चुस्की लगाने का
कम्बली ओढ़कर प्रात: जब हम निकलने लगे
मज़ा आता है मुख संग सहसा भाप उड़ाने का
इतने कपड़ों के संग दिखता कुछ भी नहीं अब
नहीं रह जाता उपाय सिवा अंदाज़ा लगाने का
हाथों में उलझे हुए दस्ताने भी अब करें गुफ़्तगू
मज़ा नहीं आता किसी से भी हाथ मिलाने का
धुँधले कुहासे में फँसी हुई हैं रवि की किरणें
कोशिश कर रहीं कुहासे के निकल जाने का
प्रदूषण की परत भी फँसी है कुहासे में कहीं
उसको भी इंतज़ार है कुहासा निपट जाने का
Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”
👌
ReplyDeleteThank you so much Arora Saheb!
ReplyDeleteVery inspirational poem ,Gogia Saab . KEEP IT UP .
ReplyDeleteThank you so much Rajan for your appreciation and inspiration! Gogia
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