Tuesday 25 September 2018

A-402 इंतज़ार 25.9.18--4.46 AM

हमने तुम्हें जाना तुम्हारे इंतज़ार से 
न तेरी मोहब्बत से न तो इकरार से 

हम तब भी अनजान बने रहे तुमसे 
लबरेज़ था ज़िस्म तेरा जब मुझसे 

मैंने तुझको कभी भी आँका ही नहीं 
तेरे अंदर हमने कभी झाँका ही नहीं 

प्यार पर भरोसा किया न किस्म पर 
न तवज्ज़ो न नज़र कभी ज़िस्म पर 

तेरी न की भी न रही गुंजाइश कोई
तेरी हाँ से न उभरी फरमाईश कोई 

तेरे मेरे जिक्र में अब तो सिर्फ मैं हूँ 
आज़मा के देख तेरा हर फ़िक्र मैं हूँ 

गले से लग जाना भी औपचारिक है 
प्यार में ऐसा होना भी वव्यहारिक है 

तुम कहोगी कि तुमने प्यार किया है 
मैं कहूँगा कि हमने इंतज़ार किया है 

Poet: Amrit Pal Singh ‘Gogia’

Sunday 23 September 2018

A-401 ख़ंजर 21.9.18--4.15 AM

जब से प्यार का मतलब समझ आने लगा है 
दिल भी दीवाना हुआ हिचकोले खाने लगा है 

कभी इस टहनी तो कभी उस टहनी का सफर 
मदमस्त टहनियाँ टिकोला नज़र आने लगा है 

टिकोलों से आती है महकती सोंधी सी ख़ुश्बू 
मंझर से बनता हुआ आम नज़र आने लगा है 

कलियों पर मँडराते आवारा भंवरों का जमघट 
नादान जवानी को मदिरा का रस भाने लगा है

चिड़ियों की चाहत से राही वाकिफ़ है ही नहीं 
मगर उनके संगम का दृश्य नज़र आने लगा है 

लैला मजनू के किस्से सारी खुदाई जानती है 
मग़र प्रेमियों को वही डर अब सताने लगा है 

सुर संगम के सप्त स्वर बेशक़ उदास बैठे हो 
मगर रंगीन महफ़िल हो कोई ज़माने लगा है 

उन्होंने अभी तो पीछे मुड़कर देखा भी नहीं है 
उनका क़रीब होने का अहसास आने लगा है 

उनके चेहरे की दमक से ख़ुशी जाहिर होती है  
उसी ख़ुशी में उनका प्यार नज़र आने लगा है

दिन रात उनकी चिंता में ही निकल जाता है 
उनसे मुरौवत है यही किस्सा सताने लगा है 

ख़ंजर को कितना भी तेज़ तर्रार कर ले कोई 
जुबां से तेज खंजर भला कहाँ आने लगा है 

कौन कैसे वाकिफ़ है इससे फर्क नहीं पड़ता 
अपना वही है जो वक्त पे काम आने लगा है 

गोगिया अब जिद्द न कर उनसे जीत जाने की 
तुमको भी तो उनसे हार के मजा आने लगा है 


Poet: Amrit Pal Singh ‘Gogia’

Thursday 20 September 2018

A-400 फ़ासला 21.9.18–3.46 AM

हमने जब उम्र की दहलीज़ से निकल कर देखा 
हमने पाया कि फ़ासला अभी तय हुआ ही नहीं 

हम अभी भी वहीँ खड़े और उसी बात पर अड़े है 
लड़कियों के लेकर आज भी अंडे समान सड़े हैं 

आज भी औरत मात्र भोग विलास की जरुरत है 
इन मर्दों का क्या इनकी भला जैसी भी सूरत है 

अप्सरा चाहिए जो अभी अभी स्वर्ग से उतरी हो 
पार्टी मालदार और अमीर खानदान की पुत्री हो 

कभी देखा ही नहीं कि माँ कितनी सुंदर होती है 
अपनी बेटी की पढाई देख क्यों गद्द-गद्द होती है 

माँ ने उसको जन्म दिया तो उसका आगाज़ हुआ 
बिटिया ने संभाला घर तब घर का रिवाज़ हुआ 


भाई को बहन मिली और राखी का त्यौहार हुआ 
ऐसा रिश्ता कहाँ होता है जैसे चरम उपहार हुआ 

माँ बाप की बेटी से घर का सपना साकार हुआ 
जैसे ही वो बड़ी हुई तभी उसका बहिष्कार हुआ

लौट के जब आयी तो कोई न अपना यार हुआ 
अपने ही घर अपनों का परायों सा व्यवहार हुआ

ससुराल में जा बहु बन कैसे यह चमत्कार हुआ 
बहु-बेटी सहज़ अति सुन्दर सपना साकार हुआ 

पत्नी बन फ़र्ज़ निभा जैसे कोई आविष्कार हुआ 
माँ बन ममता लुटाई जब बेटी का अवतार हुआ 

वही माँ और उसी बेटी का पुनः शिलान्याश हुआ 
तब कहीं किसी को इस रिश्ते का अहसास हुआ 

'गोगिया' तू ही बता बेटी न होती तो माँ कहाँ होती 
अगर यह माँ ही न होती तो ये नन्ही जां कहाँ होती 

Poet: Amrit Pal Singh ‘Gogia’


Sunday 16 September 2018

A-398 वक़्त 16.9.18--7.24 AM

वक़्त की शराफ़त को देखो कितना शर्माता है 
चुपके से आता है और चुपके से चला जाता है 

न तो थकान होती है इसको न हालात सताते हैं 
बेफिक्रा मौज़ी  है यह इसको दोनों ही लुभाते हैं 

न रात का फ़िक्र है न दिन का उजाला चाहिये 
खाता कुछ नहीं बस खुद का निवाला चाहिये 

थकता भी नहीं कि रुक जाये कहीं पल दो पल 
मेहनत से कतराता नहीं चाहे कैसा भी हो सबल 

न जाने किस ज़माने से ये क्या जमाने आया है 
बाप का पता नहीं किस माँ ने इसको जाया हैं 

सूरज की तपिश भी इसको रोक नहीं पाती है 
बारिश की फुहार कहाँ इसे शोख़ कर पाती है 

नदियां नाले पर्वत भी कहाँ इसको रोक पाते हैं 
सब गहन इंतज़ार में हैं बस केवल टोक पाते हैं 

न किसी का अपना है न किसी का पराया है 
यह स्वयं से आया है और स्वयं में समाया है 

पंडित भी पीछे लगा रहा कि वक्त ही बुरा है 
यह फिर भी चलता रहा जैसे वही वो धुरा है 

जिसकी आड़ में हम सारी बुराईयाँ करते हैं 
वो कुछ भी नहीं कहता हम फिर भी डरते हैं 

न जाने कितने पाप-करम हमने कर डाले हैं 
और वक्त के नाम पर ही सारे उड़ेल डाले हैं 

वक्त को ख्वामख़ाह जब मैं दोषी ठहराता हूँ 
घड़ी सुस्त हो जाती है मैं खामोश हो जाता हूँ 

आज मैं उस ख़ामोशी को ही तोड़ने आया हूँ 
जो रिश्ता प्यार का था उसे जोड़ने आया हूँ

नहीं दोष दूँगा अब मैं वक़्त के इम्तिहान को 
मैं अपने शब्द रखूँगा-रखूँगा अपने ईमान को 

‘गोगिया’ वक्त है अभी न इसको तू बर्बाद कर 
जिस्म फ़रोशी छोड़ दे बस केवल तू प्यार कर 


Poet: Amrit Pal Singh ‘Gogia”

Tuesday 11 September 2018

A-396 इज़हार न कर 12.11.18--7.40 AM

आज ख़ुद अपने दर्द का इज़हार न कर 
बात नहीं बनेगी इसीलिए ऐतबार न कर
अपनों पर स्वयं का भरोसा कहाँ होता है 
दर्द सहन कर लो ज़िन्दगी दुश्वार न कर 

अपने लगने वाले भी अपने कहाँ होते हैं 
ग़ैरों संग रहना सीख बरबस प्यार न कर 
प्यार के लम्हों ने ही तो दर्द दिया तुमको 
उनसे जुदाई ले लो ज़िंदगी ख़राब न कर 

भरोसा पल-भर का भी बहुत ज्यादा है 
श्वासों के चले आने का इंतज़ार न कर 
एक के आते ही तो दूजा चला जाता है 
उनके इस ढर्रे में ख़ुद को बेक़रार न कर 

आने-जाने की गुफ़्तगू आदि से पुरानी है 
नहीं कोई अपना है नहीं कोई सयानी हैं 
अपने अपने हिस्से का दर्द हमने लेना है 
बाकी सब झूठ है बाकी सब कहानी है 

बेशक़ क़रीब आकर कसमें वादे भी करे 
समझ जाओ वो कसमें मात्र बेईमानी है 
वादों को निभाने की रस्म रस्म ही रहेगी 
उनकी प्यारी अदा तो केवल ज़िस्मानी है 

Poet: Amrit Pal Singh Gogia ‘Pali’