वक़्त की शराफ़त को देखो कितना शर्माता है
चुपके से आता है और चुपके से चला जाता है
न तो थकान होती है इसको न हालात सताते हैं
बेफिक्रा मौज़ी है यह इसको दोनों ही लुभाते हैं
न रात का फ़िक्र है न दिन का उजाला चाहिये
खाता कुछ नहीं बस खुद का निवाला चाहिये
थकता भी नहीं कि रुक जाये कहीं पल दो पल
मेहनत से कतराता नहीं चाहे कैसा भी हो सबल
न जाने किस ज़माने से ये क्या जमाने आया है
बाप का पता नहीं किस माँ ने इसको जाया हैं
सूरज की तपिश भी इसको रोक नहीं पाती है
बारिश की फुहार कहाँ इसे शोख़ कर पाती है
नदियां नाले पर्वत भी कहाँ इसको रोक पाते हैं
सब गहन इंतज़ार में हैं बस केवल टोक पाते हैं
न किसी का अपना है न किसी का पराया है
यह स्वयं से आया है और स्वयं में समाया है
पंडित भी पीछे लगा रहा कि वक्त ही बुरा है
यह फिर भी चलता रहा जैसे वही वो धुरा है
जिसकी आड़ में हम सारी बुराईयाँ करते हैं
वो कुछ भी नहीं कहता हम फिर भी डरते हैं
न जाने कितने पाप-करम हमने कर डाले हैं
और वक्त के नाम पर ही सारे उड़ेल डाले हैं
वक्त को ख्वामख़ाह जब मैं दोषी ठहराता हूँ
घड़ी सुस्त हो जाती है मैं खामोश हो जाता हूँ
आज मैं उस ख़ामोशी को ही तोड़ने आया हूँ
जो रिश्ता प्यार का था उसे जोड़ने आया हूँ
नहीं दोष दूँगा अब मैं वक़्त के इम्तिहान को
मैं अपने शब्द रखूँगा-रखूँगा अपने ईमान को
‘गोगिया’ वक्त है अभी न इसको तू बर्बाद कर
जिस्म फ़रोशी छोड़ दे बस केवल तू प्यार कर
Poet: Amrit Pal Singh ‘Gogia”