Tuesday 29 October 2019

A-123 फिज़ा 30.10.19--3.49 AM

तेरे बदन की ख़ुशबू जब फिज़ा में पसरती है
तू मुझसे दूर, कहींदूर निकल जाया कर  
क़सम खुदा की कहीं कोई गुनाह हो जाये 
तू मुस्कुरा, मग़र थोड़ी सी सम्भल जाया कर 

हम भी बेख़बर हो जाते हैं तुम्हें करीब पाकर 
करीब रहो, मग़र तू अपनापन जताया कर 
तेरा बेवाक चले आना भी तो बहुत सुहाता है 
इतनी तहज़ीब के संग मेरे पास आया कर 

तुम तो सदा मेरे अहसासों में बसी रहती हो 
बस केवल उनको ही अपना घर बनाया कर 
अपने घर में रहो शोख तितलियों की भांति 
दबे पाँव ख़िसक-ख़िसक के मत आया कर 

बिजली कड़कती है तो दिल थाम लेते हैं हम
तू अपने चेहरे से अपनी जुल्फें हटाया कर 
तेरी राहों में हम एकदिन बेगुनाह मारे जायेंगे 
अपनी ज़ुल्फ़ों को हवा में यूँ लहराया कर 

यह भी जानो कि मैं मौत से बहुत शर्मिंदा हूँ 
बस नज़रों के तीर मुझपर यूँ चलाया कर
तेरी हर बात बेशक बिना शर्त मान लेता हूँ 
तू बात-बात पर शतरंज को बिछाया कर  

बड़ा सकूँ मिलता है मुझे तेरी ग़ुलामी में बैठ 
बेशक़ सारी-सारी रात पाँव भी दबवाया कर 
तू तो नींद में भी बाकमाल हसीना लगती है 
बस नींद से परेशान होकर उठ जाया कर 

'पाली' दीवाना है दीवाना रहेगा ताउम्र तेरा 
सच कहूँ तो तू इतनी न खिलखिलाया कर 
वरना बाँध लेंगे सदा के लिए तुझे बाहों में 
इस तरह चुपके से मेरे करीब न आया कर 

अमृत पाल सिंह 'गोगिया'

Saturday 16 March 2019

A-449 परिंदा 17.3.19--3.34 AM


प्यार करो तो ऐसे जैसे एक परिंदा हो 
एक मर जाये दूसरा अभी भी ज़िंदा हो 
बैठा इंतज़ार में कि कब उठकर बैठेगा 
उसे लग रहा जैसे कि रूठ कर बैठा हो 

तड़पता भागता हो मदद माँगता फिरे 
कभी यहाँ पर गिरे कभी वहाँ पर गिरे 
होश उसे अपने सिंगार कपड़ों की नहीं 
वो तो खुदा से भी इंसाफ़ माँगता फिरे 

नहीं नसीब उसके लगता कोई मुक़ाम 
हर मुक़ाम पर नया मुक़ाम ढूँढता मिले 
थक हार कर जब गिर बैठा जिस ज़मीं 
वही ज़मीं भला कैसे आसमान से मिले 

गिरे ज़मीं पर तो आँसू भी पुख़्ता हो गये
अब तो वहीं मिलेंगे जहाँ आसमाँ मिले 


Poet: Amrit Pal Singh ‘Gogia’

Saturday 9 March 2019

A-447 तेरा आँचल 8.3.19--7.57 AM

तेरा आँचल जो खिसका उड़ा ले गया 
मेरे होशो हवास निंदिआ भगा ले गया 
नज़र भी टिकी नहीं फ़िसलन बड़ी थी 
बदहवासी में कोई और मज़ा ले गया 
बताओ मुझे कोई क्या दे गया!

तेरी ज़ुल्फ़ों ने घेर ली कायनात सारी 
मुझसे ही दूर कोई मेरा जहां ले गया 
बदरिआ में ढूँढू कैसे मैं वस्ल की रात 
मैं ढूंढता रहा कि तुमको कहाँ ले गया 
बताओ मुझे कोई क्या दे गया!

तेरे होंठों के पहलुओं को बिखरता देख 
खनकती हंसी का राज राजदां ले गया 
हम तो तेरी हँसी के फव्वारों में खो गए
कोई हमसे हमारा अंदाजे बयां ले गया
बताओ मुझे कोई क्या दे गया!
तेरी उल्फ़त में उलझे-उलझे से रहे हम 
ऐसे में कोई सब्र का इम्तिहान ले गया 
हम भी मुसल्सल बहुत परेशानी में रहे 
रात की तन्हाई और इत्मीनान ले गया 
बताओ मुझे कोई क्या दे गया!

तय कर लिया जब कि सब्र से देख लें 
कमर का लचका सब्र को उड़ा ले गया 
सारा जहाँ बेअदब उमड़ रहा तमाशे को 
यह उनका उमड़ना मुझको कहाँ ले गया 
बताओ मुझे कोई क्या दे गया!

तेरे रसीले होठों ने मुझसे की है साजिश
मुआ मेरी ही जुबान से देख जुबां ले गया  
हम उलझे रहे मुसल्सल कि फिर आओगे 
हम चल दिए उसके संग वो जहाँ ले गया 
बताओ मुझे कोई क्या दे गया!

तेरी एक अंगड़ाई ने मुझे बेबस कर दिया 
मेरे मन का चैन बेबस कोई कहाँ ले गया 
रास्ता अब किसी सूरत और बचा ही नहीं 
हमने खुद ही कह दिया कि फलां ले गया 
बताओ मुझे कोई क्या दे गया!

Amrit Pal Singh ‘Gogia’

Wednesday 13 February 2019

A-437 वक़्त के साथ 12.2.19--9.31 PM

वक़्त के साथ हमने बदलना छोड़ दिया 
लोगों के डर से संवरना जो छोड़ दिया 
लोग कहते हैं कि तुम पत्थर हो गए हो 
सच है झूठ का सच करना छोड़ दिया 

वक़्त के साथ हमने बदलना छोड़ दिया 

लोग इकट्ठे हो जाते हैं सहसा हादसे पे 
मैंने हादसों का ज़िक्र करना छोड़ दिया 
बर्फ़ के साँचे में ख़ुद को ही ढाल लिया 
हर बात पर हमने पिघलना छोड़ दिया 

वक़्त के साथ हमने बदलना छोड़ दिया 

अपनी सुरक्षा भी जब ख़ुद ही करनी है 
हमने तेरी इबादत का जीना छोड़ दिया 
अब अजनबी पर भरोसा मैं करता नहीं 
मैंने तुम्हारे भरोसे पर जीना छोड़ दिया 

वक़्त के साथ हमने बदलना छोड़ दिया 

नहीं अनुराग करना किसी भी बेवफ़ा से 
गलियों की टोली संग जाना छोड़ दिया 
बैठे गए शाख़ पर अब हम उल्लू बनकर 
उजाले में मैंने नज़रें मिलाना छोड़ दिया 

वक़्त के साथ हमने बदलना छोड़ दिया 

तुमको एक नज़र भर के जब देख लिया 
मैंने इस बात पर इतराना भी छोड़ दिया 
नदी ने भी तो समन्दर से मिलना ही था 
हमने अदब से दिल मिलाना छोड़ दिया 

वक़्त के साथ हमने बदलना छोड़ दिया 

मेरे कितने गुनाह हुए इसका पता नहीं 
गोगिया ने खाता रखना ही छोड़ दिया
कैसा हिसाब कि स्वर्ग कहाँ मिलता है 
मैंने पंडितों से ईर्ष्या करना छोड़ दिया  

वक़्त के साथ हमने बदलना छोड़ दिया 


Poet: Amrit Pal Singh ‘Gogia’

Thursday 7 February 2019

A-436 तेरी तस्वीर 6.2.19--3.05 A

तेरी तस्वीर से ही काम चला लेता हूँ 
जब बिगड़ जाए तो नई बना लेता हूँ 
अक़्स दिख जाये जब तेरा आइने में 
मैं अक्सर उसे सीने से लगा लेता हूँ 

इश्क़ मोहब्बत की बातें होती हैं जब 
तुम्हें तेरी तस्वीर से निकाल लेता हूँ
बातें करते-करते ख़त्म हो जाएं जब 
तेरी सूरत पर ही नज़रें टिका लेता हूँ

हुस्न चाहिये और क़द्र बहुत करता हूँ 
इसीलिए तुझे मैं अपना बना लेता हूँ 
लज्ज़ा हद से पार तो हो ही जाती है 
ख़ुद की गलती ख़ुद ही सज़ा लेता हूँ 

अपना कहूँ फिर भी बिगड़ जाये ग़र 
तो मैं ख़ुद को ख़ुद से गिरा लेता हूँ 
दूर जाते ही एक कसक सी उठती है 
दर्द को बहुधा सीने में छिपा लेता हूँ 

जिरह करने वाला कोई भी नही होता 
कोई भी रूठे खुद को ही मना लेता हूँ 
लकीरों से बाक़ायदा दोस्ती निभाकर 
तेरी मुस्कान भरी तस्वीर बना लेता हूँ

धीरे-धीरे तुझसे मोहब्बत हो चली है 
इस एहसास को तुमसे छिपा लेता हूँ 
छूट न जाये हाथों से तेरा दामन कहीं 
इसीलिए दामन को ही दबा लेता हूँ 

अक्सर सोचता हूँ तू होती ही न अगर 
फिर ख़ुद को ख़ुद ही समझा लेता हूँ 
जमीन को आसमां से मिलता देखकर 
मैं भी अपना सर गर्व से उठा लेता हूँ 

अमृत पाल सिंह 'गोगिया'




Wednesday 30 January 2019

A-434 तुम कौन हो 30.1.19--4.52 AM


अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम 
तुम कौन हो ख़ुद को बताओ तो तुम 
रास्ते ख़ुद ब ख़ुद खुलते चले जायेंगे
दुनिया की नज़रों में उठ जाओगे तुम 
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम

एक मरतबा अपनी क़द को देखो तो 
कितने बड़े हो समझ भी जाओगे तुम 
तुम्हारी सोच ने तुमको जकड़ रखा है 
जो चाहोगे बस वही बन जाओगे तुम 
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम

बड़ों से मुसल्सल गर इत्तेफ़ाक रखो 
कोई मसला नहीं समझ पाओगे तुम
उनके पैरों तले जन्नत शिकस्त होगी 
जन्नत को भी नसीब हो जाओगे तुम 
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम

उनका अदब-अदब की इतलाह देगा 
गर सुनो अदब को मिल पाओगे तुम 
सोचो गर अदब तुम्हारे नसीब में हो 
क्या कुछ करके नहीं दिखाओगे तुम 
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम

कवि-शायर ये लोग अच्छे नहीं होते 
इनको कभी नहीं समझ पाओगे तुम 
ज़हर उगलने की जो आदत होती है 
ज़हर पीकर शिवम् बन जाओगे तुम 
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम

बड़ों और छोटों के बीच की जंग को 
वैसे तो कभी नहीं समझ पाओगे तुम 
यह जंग तो सिर्फ़ तजुरबों की ही है 
अपने अहं का मसला न बनाओ तुम 
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम

दूरी बीच की तुरन्त स्वाहा हो जाएगी 
प्यार व सकून के संग रह पाओगे तुम 
थोड़ी सी जगह दे दो टाँगे पसारने की 
उनका मसला भी समझ जाओगे तुम 
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम

क्या औलाद के दुश्मन हो सकते हो 
अगर हाँ तो नहीं समझ पाओगे तुम 
एक औलाद के क्या तात्पर्य होते हैं 
क़ामयाब होकर समझ पाओगे तुम 
अपने आप को ऊपर उठाओ तो तुम

Poet: Amrit Pal Singh ‘Gogia’

Sunday 20 January 2019

A-431 मेरी कलम 20.1.19--3.11 AM


मेरी कलम भी बहुत बेचैन है आज 
मेरे हर्फ़ों को ज़रा संभलने तो दो न 
बिखर गये हैं गृहस्थी के बोझ तले
मुझे भी गृहस्थी से उबरने तो दो न 
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न 

कौन कहता है कि मैं शायर नहीं हूँ 
मेरे हरफ़ों को ज़रा सँवरने तो दो न 
दूध और पानी का लेखा भी करूँगा
हर्फों से दो हाँथ ज़रा करने तो दो न 
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न   

मैं बड़े-बड़े शायरों के बीच बैठा हूँ 
बज़्म को भी ज़रा संभलने तो दो न 
मेरी औक़ात का पता लग जाएगा 
शब्दों को मुझे ज़रा मढ़ने तो दो न  
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न   

तेरी रहगुज़र में हमने रात गुज़ार दी 
थोड़ा सा क़रीब मुझे रहने तो दो न 
तेरे हर सबब से वाकिफ़ हो जायूँगा 
हया भी आये तो उसे सहने तो दो न 
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न   

चाँद-तारों को गर परखना चाहते हो 
रात को भी आमद हो जाने तो दो न 
देखना भी इनके एक-एक इशारे को 
फिर इशारों को ज़रा थमने तो दो न  
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न   

इश्क़ आमादा है फ़िदा हो जाने को 
हुस्न को भी थोड़ा सँवरने तो दो न
हुस्न भी उभर कर जब सामने आये 
ओढ़नी को थोड़ा खिसकने तो दो न 
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न   

नाज़ नख़रे तेरे सभी सह लेंगे हम 
असमत को ज़रा निखरने तो दो न 
तेरी ख़ुशबू के चर्चे सरे आम होंगे 
कली को फूल ज़रा बनने तो दो न 
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न   

कौन कहता है रात अंधेरी होती है 
सूरज को ज़रा तुम ढलने तो दो न 
रात रोशन होगी सिल्मे सितारों से 
महफ़िल को ज़रा जमने तो दो न 
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न   

हर महफ़िल में शमआ रोशन होगी 
हुस्नों को जलवे बिखेरने तो दो न 
परवानों की नींद हराम हो जाएगी 
शमआ को भी ज़रा मचने तो दो न 
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न   

हर शक्स शराबी नज़र आएगा यहाँ 
जाम से जाम को खड़कने तो दो न 
एक-एक बूँद को पागल भी तरसेगा 
जाम की बोतल ख़त्म होने तो दो न 
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न   

सुबह हर कोई अपने होश में होगा 
बस नशे को ज़रा उतरने तो दो न 
क्या हुआ था किसे होश होगी अब 
उनके परों को ज़रा कुतरने तो दो न 
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न   

सारंगी की आवाज़ बेसुरी हो चली  
ढीली तार को ज़रा कसने तो दो न 
निकलेगी जो तान समा बदल देगी 
इसके सुर को भी निखरने तो दो न 
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न   

कौन कितना रोयेगा तेरी मैयत पर 
देखना है तो ख़ुद को मरने तो दो न 
मर कर देखो ज़िंदगी की हकीकत 
लोगों को स्वयं से मिलने तो दो न 
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न   

अश्क़ों को बहाकर भी क्या मिलेगा 
लोगों को ज़रा भावुक होने तो दो न 
ज़िंदगी का सत्र भी पूरा हो जायेगा 
श्वासों की माला बिखरने तो दो न 
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न   

गोगिया बता कितना मज़ा आता है 
नशे को दोबारा तुम चढ़ने तो दो न 
हिन्दी अंग्रेज़ी में तब्दील हो जाती है 
ज़ाम को चकमा ज़रा देने तो दो न 
मेरे दिल को ज़रा मचलने तो दो न   


Poet: Amrit Pal Singh ‘Gogia’