हम भी रिश्तेदार हैं यही क्यों भूल जाते हैं
रिश्तों का धागा दोनों तरफ जुड़ा होता है
तब हम ख़ुद का सिरा कहाँ छोड़ आते हैं
जब अपनी उम्मीद दूसरों को जतलाते हैं
क्या उस वक़्त हम अपना फ़र्ज़ निभाते हैं
जब दहलीज़ फांद कर उस ओर जाते हैं
रिश्तों की मर्यादा को क्या समझ पाते हैं
पाट की चक्की में तो दोनों को पिसना हैं
फिर क्यों हम इल्ज़ाम दूसरों पर लगाते हैं
धुरा भी तो एक ही होता है दोनों के लिए
घूमना होगा मुसल्सल फिर भी कतराते हैं
तड़प रिश्ते की सिर्फ़ अपनों में ही होती है
शायद इसीलिये हम अपनों को तड़पाते हैं
स्वयं का दर्द तो तब महसूस होता है अंतः
जब अपने पता नहीं कहाँ निकल जाते हैं
वही बचते हैं जो धुरे से चिपके रहे ताउम्र
बाक़ी तो पिसकर खुद ही निकल जाते हैं
वक़्त को यूँ बर्बाद न कर 'पाली' अब तूँ
नाज़ुकता को समझ ये फिर नहीं आते हैं
अमृत पाल सिंह 'गोगिया'
👌👌
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