Sunday 20 September 2015

A-061 मैं हिन्दी हूँ -18.9.15—4.24PM


मैं हिन्दी हूँ -18.9.15—4.24PM
A-061 मैं हिंदी हूँ -18.9.15—4.24PM 

मैं हिंदी हूँ 
भारत की राष्ट्रभाषा हूँ 
हर घर की मातृभाषा हूँ 
मैं संविधान में पली हूँ 
मैं यहाँ सबसे बड़ी हूँ 

बहुत आदर है सम्मान है
देश का भी तो यही फरमान है
इतना प्यार देखकर मन भर आया है 
घर बैठे-बैठे मन बहुत घबराया है 

सोचा !!!! थोड़ी सैर ही कर आऊँ 
सबसे पहले मैं
संविधान से बाहर निकली 
मिल गयी मुझे एक प्यारी सी तितली 
हाय हाय करती बाय बाय करती 
तभी उसकी जुबान फिसली 
सॉरी-सॉरी करती वह दूर निकल गयी 

तभी मेरी नज़र 
एक चपड़ासी पर फिसल गयी 
सूट-बूट ऐसे जैसे अंग्रेज की औलाद हो 
इंग्लिश टूटी फूटी जैसे वही संवाद हो 

मैं वहाँ से भागी स्कूल जा मरी 
वहां पहुँच मैं औंधे मुँह गिरी 
स्कूल हिंदी का, लिखा इंग्लिश में था 
हिंदी मीडियम 

मैं हैरान थी परेशान थी 
जो भाषा देश की शान थी 
उसके दर्द से जनता अनजान थी 

बच्चे बोलें डांट पड़ती है 
टीचर बोले तो गाज़ गिरती है 




हिंदी बोले तो बच्चे गवाँर हैं 
अंग्रेजी बोले तो बच्चे स्मार्ट हैं 

विद्यालय से स्कूल हो गया 
महाविद्यालय कॉलेज हो गया 
विश्व विद्यालय यूनिवर्सिटी हो गया 

सब काम अंग्रेजी में करते हो 
उसी में अपनी शान समझते हो 
गालियां तक तो अंग्रेज़ी में निकालते हो 

माफीनामा भी अंग्रेज़ी में निपटाते हो 
फिर भी हिंदुस्तानी कहलाते हो 

तुमने तो सारी दुनिया ही बदल डाली 
माँ को मम्मी बना दिया 
मम्मी का मतलब भी जानते हो 

लाश को संभाल के रखो 
तो वो मम्मी कहलाती है 
तुमने मुझे भी लाश बना दिया है 

इसीलिए तो हिंदी दिवस मनाते हो 
जो रोज़ पूजी जानी चाहिए थी 
साल में एक बार धूप बत्ती दिखाते हो 
कभी कभी दीप माला भी जलाते हो 


यह काम तो केवल लाश के लिए किये जाते है 
मरने के बाद स्मरण किये जाते है 

तुम कातिल हो तुमने मुझे मारा है 
तुम कातिल हो तुमने मुझे मारा है 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

Wednesday 16 September 2015

A-063 क्या रखा है -13.9.15—10.32 AM

A-63 क्या रखा है 13.9.15—10.32 AM 

क्या रखा है 
मंदिर और गुरुद्वारों में 
मस्जिद की चार मीनारों में
चर्च की सभागारों में 
उनकी प्राचीन दीवारों में 

क्या रखा है 
नमन और नमस्कारों में 
पूजा पाठ कर हज़ारों में 
दान-दक्षिणा और उनके नारों में 
धागों और पेड़ों के अवतारों में 
मन्नतों और उनके उतारों में 
प्रसाद भंडारे के निपटारों में 

क्या रखा है 
परिक्रमा के फेरों में 
गुफाओं के अँधेरों में 
शिलाओं के मुंडेरों में 
टीका चन्दन कर बहुतेरों में 
संतों के डेरों में 
प्रवचनों के ढेरोँ में 
उनके सहज स्वभाव में 
उनके चरणों पर झुकाव में 

क्या रखा है 
मस्जिद की चार मीनारों में
उनके पाक इरादों में 
उसकी रंगीन दीवारों में
कुरान की पवित्र आयतों में
नमाज़ की खासी तहजीब में 
उनकी बताई तरतीब में

चादर चढ़े हजारों में  
खड़े रहो कतारों में 
ताबीज़ों के मंत्र पहाड़ों में 
झाड़-फूक और निपटारों में 
मन्नतें मानो हज़ारों में 

क्या रखा है 
चर्च की दीवारों में 
उसकी सभागारों में 
वादों और चमत्कारों में 
गिनती हो हजारों में 
बैठ सुन्दर कतारों में 
प्रार्थना की पुकारों में 

बस वही रखा है जो तेरा विश्वास है 
हर जीव हर इंसान तेरे लिए ख़ास है 
भेद नस्लों की बात केवल विनाश है 
सब तेरे हैं मैं तेरा हूँ यही उल्लास है 

सब तेरे हैं मैं तेरा हूँ यही उल्लास है 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

Saturday 12 September 2015

A-189 लाश बोल उठी-10.9.15—2.30 PM

A-189 लाश बोल उठी-10.9.15—2.30 PM

लाश बोल उठी
अब क्या देखते हो मैं वही हूँ बस!!!

जिसका कोई आधार नहीं है
नहीं है तो बस अहंकार है वो 
कुछ साबित करने को नहीं है
किसी से कोई तकरार नहीं है

न मुझे कोई गिला न शिकवा है
अब तो दिल भी बेकरार नहीं है
दुःख दर्द सिलसिला क्या करे 
अब तो किसी से प्यार नहीं है

न किसी क़िस्म की जद्दो जहद है
जिंदगी का अब कोई सार नहीं है
अब कुछ भी मुझे दिखाना नहीं है
बस अब मेरा कोई इज़हार नहीं है

न इंतज़ार है अब और किसी का 
ज़िंदगी अब शर्मशार भी नहीं हैं
डर भी नहीं लगता लम्बे सफर से
मुझे अब कोई इन्कार भी नहीं है

कोई अपना कोई पराया नहीं है
अब कोई मेरा जाया भी नहीं है
न मेरा कोई सम्मान है अब यहाँ 
अब कोई ख़िदमतगार भी नहीं है

न कोई ग़म न ख़ुशी के आंसू हैं 
मेरा कोई अब तिरस्कार नहीं है 
न कोई अच्छा है न कोई बुरा है
अमीरी ग़रीबी का हिसाब नहीं है 

सिर्फ परम शांति है
जिसका कोई शिल्पकार नहीं है
अब क्या देखते हो मैं वही हूँ बस
जिसका कोई आधार नहीं है..... जिसका कोई आधार नहीं है.....


Poet: Amrit Pal Singh Gogia "Pali"

Sunday 6 September 2015

A-138 वो तुम्ही तो हो -4.7.15 10.05 PM

वो तुम ही तो हो 4.7.15--10.05
वो सुबह का नज़ारा रवि का फव्वारा
हवा भी निराली सारे जहां की माली
बादलों के घेरे करते जाते जब अँधेरे
बारिश जब थमकर आये साँझ सवेरे

वो शीतल हवाऐं, महकती फिजायें
पंछी गीत गायें या फिर शोर मचाएं
फुदकती जाएं वो कुदरती अप्सराएं
ठुमक ठुमक चलती हैं उनकी अदायें

वो मधुर गीत गायें सब को रिझायें
उनको देखकर तो फूल भी मुस्कराएं

झरनों का शोर करे है कितना जोर
मन क्यों होता है इतना भाव भिवोर
बूँद बूँद में लगी कैसे नाचने की होड़
दूसरे को भगाती बिना लगाये जोर

पत्थरों से टकराती गिर गिर जाती
नहीं होती परवाह फिर संभल जाती
चल पड़ती फिर नए सफर की ओर
सहजता ही बनी है उनकी बाग़डोर

इतनी सहजता में वो तुम ही तो हो। …… वो तुम ही तो हो 

Saturday 5 September 2015

A-043 एक वट वृक्ष के नीचे-4.9.15—11.12 AM

एक वट वृक्ष के नीचे, गाँव के चौपाल पर
संध्या की ताल पर, जिंदगी के हाल पर

कुछ हँसते हुए, कुछ मुस्कराते हुए
कुछ ठहाके मारते, सबको हिलाते हुए

कुछ गुम शुदा इंसान हैं, कुछ मुरझाये हुए
कुछ मरे हुए, कुछ मार खाये हुए

कुछ गुनगुनाते हैं, कुछ गीत गाते हैं 
कुछ शकून के पहरे में, सब कुछ सहज पाते हैं

कुछ दुखों को झेलते हुए, कुछ जिंदगी को पेलते हुए
कुछ चिंताओं के घेरे में, कुछ घोर अँधेरे में

कुछ बैठे हैं चोट खाए हुए, शेर पर चढ़कर आये हुए
कुछ खुद को गिराये हुए, जिंदगी से तंग आये हुए

कुछ चेहरे छुपाये हुए, कुछ आँसू बहाये हुए
कुछ होश गवाये हुए, कुछ होश में आये हुए

कौन सी जिंदगी ढूँढ़ते हो, तुमको किसकी तलाश है
या वो समां ढूँढ़ते हो, जो बहुत ही खास है

जिंदगी जीने की एक ही कला है
जो है वही है और वही खास है
बस यही एक पल है, बाकी सब बकवास है ….बाकी सब बकवास है 
  

Tuesday 1 September 2015

A-078 तू-तू मैं-मैं का अपना ही स्वाद है 26.8.15--5.29 PM

A-078 तू-तू मैं-मैं का अपना ही स्वाद है  26.8.15--5.29 PM
तू-तू मैं-मैं का अपना ही स्वाद है 
इसके बिना ज़िंदगी अवसाद है 
ज्यादा मीठा किसी काम का नहीं 
ज्यादा मीठा झगड़े का फ़साद है 

झगड़े करने में कोई बुराई नहीं है 
आपके झगड़े में सच्चाई नहीं है 
झगडे का भी कोई तो कायदा हो 
ज़िंदगी का भी कोई तो वायदा हो 

इस ख़ुदाई में ही सारे विकास हैं 
कुछ आम हैं मगर कुछ ख़ास हैं 
गर हम यहाँ दोनों ही एक जैसे हों 
वहां तरक्की नहीं सिर्फ विनाश है 

झगड़ों में देखो कोई नहीं बुराई है 
सारी तरक्की इसी में बन आयी है
विरोध की झलक न आती नज़र 
माचिस भी न बनती यही सच्चाई है 

सारा जगत आगे बढ़ा इसी विरोध में 
अनेकों शोध हुए बने हुए अवरोध में 
कोई अभी भी खड़ा है उसी विरोध में
एक नयी दिशा नए किस्म के शोध में 

अगर सहमति बन जाती उस पक्ष में 
रुक नहीं जाती ज़िंदगी उसी कक्ष में 
किसी विरोध ने ही तो आगे बढ़ाया है 
उसी विरोध ने ही नया कर दिखाया है 

विज्ञान का बस यही तो चमत्कार है 
विरोध में किया गया ही अविष्कार है 
रुक जाता अगर वैज्ञानिक जो कहीं 
न होता कोई करिश्मा जो वैध है कहीं 

झगड़ों में ख़ुद को साबित कर रहे हो 
साबित करने के तो और भी तरीके हैं 
कुछ झगडे भी हमारे प्यार सरीके है 
सांसारिक सुख उसके आगे फीके हैं 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”