Sunday 31 January 2016

A-142 हम आज़ाद है! 1.2.16-12.19

A-142 हम आज़ाद है! 1.2.16-12.19 

कोयल……………!
तूँ किसको पुकारती है, तूँ किसको निहारती है 
वहाँ कौन छुपा बैठा है, कू कू करती भागती है 

क्यूँ छुपकर बैठ जाती है, शर्म तुमको क्यों आती है 
पत्तों से क्यों घिर जाती है, किस बात से तूँ घबराती है 

मँझर से तेरा क्या रिश्ता है, आम क्या तेरा फ़रिश्ता है 
और मौसम क्यूँ भाते नहीं, औरों संग क्यों जाती नहीं 

ताक झाँक तूँ करती है, टुक टुक इशारे करती है 
किसको तूँ ढूँढा करती है, किसके प्यार में मरती है 

तेरा अपना कोई घर नहीं, सरदियाँ कैसे गुजरती हैं 
सर्द हवाओं के झोकों में, किसके घर तूँ चहकती है 

दूसरे घरों में घुस जाती है, अंडे कैसे रखकर आती है 
अपने दिल के टुकड़े तूँ, कैसे वहाँ छोड़ आती है 

हे इंसान। ........ न हो तूँ परेशान 
न देख हमें, न हो हैरान, देखने के तरीके तेरे अपने हैं 
तेरी ज़िंदगी में सिर्फ अधूरे सपने हैं 

न कोई बंधन है न कोई रिवाज़ है
हम पंछी हैं! हम आज़ाद है! 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

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A-147 मेरी सज़ा 31.07.2020 1.23 PM

जब तक तुम भी हुए हमारे थे 
तब तक हम भी सनम हारे थे 

हम तो तुम्हें गुनगुनाया करते थे 
चोरी-छिपके तेरे पास आने लगे 

धड़कन दिल की संभलने लगी  
यूँ ही देखकर हम मुस्काने लगे 

अपनी बाँहों में तुम्हें पाकर हम 
किस्मत पर भरोसा जताने लगे 

लुत्फ़ पास आने का आने लगा 
मेरे रोम-रोम अब मुस्कुराने लगे 

हौंसले अपने भी बुलंद होने लगे 
स्वयं तदबीरों को आज़माने लगे 

जद्दो-जहद से हम वाकिफ़ थे 
मग़र नजरें तुमसे हम चुराने लगे 

तेरी आँखों में आँसू मंडराते देख 
हम क़रीब आने से कतराने लगे 

यकीनन तेरा भरोसा टूटा सा है
अपने व्यवहार पर पछताने लगे 

मुझे नहीं चाहिए अब मेरा अहं
हम तो यूँ ही सबको डराने लगे 

माफ़ कर दो मुझे मेरी सज़ा 
ये हो कि 'पाली' रुलाने लगे 

अमृत पाल सिंह 'गोगिया'

Saturday 23 January 2016

A-103 एक सच्ची कहानी 23.1.16—3.25 AM

A-103 एक सच्ची कहानी 23.1.16—3.25 AM 

एक तो सच्ची कहानी 
दूजी अपनी मन मानी 
एक में परम सुख है 
दूजे में घना दुःख है 

एक में प्यार का रुख है 
उसमें जीवन का सुख है 
वही मृदुंग की ताल है 
वही तो सारा कमाल है 

वही नयन तारे हैं 
वही माँ के दुलारे है 
वही माँ का स्पर्श है 
वही पिता का संघर्ष है 

वही तुम्हारी अभिव्यक्ति है 
वही तुम्हारी पूर्ण शक्ति है 
वही दिशा का ज्ञान है 
वही तुम्हारा सम्मान है 

दूजा बना अभिमान है 
बन गया  प्रमाण है 
उसमें तीर कमान है 
निशाने पर ईमान है 

सुख अतीत हो आया है 
बन के खंडहर छाया है 

अभिमान की आन रखी 
जीतेंगे मन में ठान रखी

यह भी एक षड़यंत्र है 
जीतने का एक तंत्र है 
अपनों से हार जाना ही 
जीतने का मूल मंत्र है 

जिम्मेदारी लो गर अपने होने की 

ज़िन्दगी बन जाये तुरंत सोने की 
Poet: Amrit Pal Singh Gogia "pali:

Sunday 17 January 2016

A-048 जब तुम जीने की ठान लेते हो 17.1.16—4.32 AM


A-048 जब तुम जीने की ठान लेते हो 17.1.16—4.32 AM
जब तुम जीने की ठान लेते हो
किसी का कहना मान लेते हो

सुनने के अलावा भी कुछ सुनता है
ताने बाने बुने जाते है कुछ बुनता है

किसी का दर्द तुम्हारा दर्द बन जाता है
होना ही किसी का मरहम बन जाता है 

दिखने के अलावा भी कुछ दिख जाता है
तेरे इस होने पे ही दूसरा भी रीझ जाता है

समर्पण का भाव घर करने लगे
तुम्हारे अंदर जब कोई मरने लगे

अदब और सत्कार जगने लगे
जब खुशबू कहीं बिखरने लगे

मिलने की चाहत बलवान हो
घर आया मेहमान भगवान हो

जब अहंम कहीं टूटने सा लगे
जब मन कहीं फूटने सा लगे

जब सपना भी सृजित होने लगे
मन के भाव प्रफुल्लित होने लगे

तुम अपने आप में खोने लगे
अच्छी नींद जब तुम सोने लगे

जब आँखों से नीर झरने लगे
दर्द किसी का मन भरने लगे

जब दाँत मोती बन टपकने लगे 
चेहरे पर खुदाई झलकने लगे

चेहरे मुस्कान जब महकने लगे
मिलने की चाहत सहकने लगे

तब समझना कि तुम इंसान हो .... कि तुम इंसान हो
Poet; Amrit Pal Singh Gogia "Pali"

Thursday 14 January 2016

A-029 अपने ही अपने न हुए 14.1.16—8.48 AM


अपने ही अपने न हुए  14.1.16—8.48 AM

अपने ही अपने न हुए दूसरों से क्या शिकवा 
किसको मैं कहूँ अपना किसको मैं कहूँ मितवा

जिंदगी ही दे डाली जिनकी खातिर 
वही समझ रहे हैं मुझको ही शातिर 

अश्क कहने आये हैं एक गुजरी हुई दास्ताँ 
हर पल कैसे गुजरा है बनाने में ये गुलिस्ताँ 

हर कोई हक़ जताता है जताकर मुझे अपना 
फिर भी निकल जाता हैं बताकर मुझे अपना 

कल तक जो अपने थे आज क्यूँ वो पराये हैं 
कल की हकीकत पर आज क्यूँ मुरझाये हैं 

कौन सी घड़ी कब क्यूँ निकल जाती है 
सारी स्यानप धरी की धरी रह जाती है 

जानते हुए भी अन्जान बने जाते हैं 
रिश्तों की आड़ में रिश्ते भुने जाते हैं 

शिकायत किसी की भार हम क्यों ढोए रे 
शिकायतों से दूर रह अच्छी नींद सोये रे 

सपने सुनहरे भी उन्हीं को आते हैं 
चेहरे भी उनके ही मुस्कराते हैं 


Poet; Amrit Pal Singh Gogia “Pali”