Sunday 10 January 2016

A-129 मोहब्बत का अपना ही दस्तूर है 11.1.16—3.00 AM

A-129 मोहब्बत 11.1.16-3.00 AM 

मोहब्बत का अपना ही दस्तूर है 
गैरों में अपनेपन का जो शरूर है 

यहाँ पर कोई भी नहीं मज़बूर है 
किसी के अपने होने का गरूर है 

सुनते रहना इसका पहला धर्म है 
हर बात मान लेना इसका कर्म है 

दिन को रात कहे रात ही जानना 
नहीं तो झेलनी पड़ेगी पड़ताड़ना 

न कोई सवाल न कोई मलाल है 
संग रहने का तरीका बेमिसाल है 

दुश्मनी का भी अपना ही दस्तूर है 
अपनों का अपना होना न मंज़ूर है 

न सुनना ही उसकी पहली शर्त है 
उसके नीचे चाहे जैसी भी गर्त है 

न कोई सुनता है न कोई सहमत है 
शूल चुभता चुभे न कोई जहमत है 

अपना गरूर जब बरसने पे आता है 
तब अपना भी बेगाना नज़र आता है 

अगर सुन सकते हो अपने यार को 
नहीं तड़पना पड़ेगा अपने प्यार को 

Poet; Amrit Pal Singh Gogia “Pali”




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