अपने ही अपने न हुए दूसरों से क्या शिकवा 
किसको मैं कहूँ अपना किसको मैं कहूँ मितवा
जिंदगी ही दे डाली जिनकी खातिर 
वही समझ रहे हैं मुझको ही शातिर 
अश्क कहने आये हैं एक गुजरी हुई दास्ताँ 
हर पल कैसे गुजरा है बनाने में ये गुलिस्ताँ 
हर कोई हक़ जताता है जताकर मुझे अपना 
फिर भी निकल जाता हैं बताकर मुझे अपना 
कल तक जो अपने थे आज क्यूँ वो पराये हैं 
कल की हकीकत पर आज क्यूँ मुरझाये हैं 
कौन सी घड़ी कब क्यूँ निकल जाती है 
सारी स्यानप धरी की धरी रह जाती है 
जानते हुए भी अन्जान बने जाते हैं 
रिश्तों की आड़ में रिश्ते भुने जाते हैं 
शिकायत किसी की भार हम क्यों ढोए रे 
शिकायतों से दूर रह अच्छी नींद सोये रे 
सपने सुनहरे भी उन्हीं को आते हैं 
चेहरे भी उनके ही मुस्कराते हैं 
Poet; Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

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