Monday 27 February 2017

A-245 उनके पैरों की आहट 27.2.17--6.44 AM


A-245 उनके पैरों की आहट 27.2.17--6.44 AM

उनके पैरों की आहट से मिली जो गुफ़्तगू 
बजे दिल की वीणा के तार थम थम के

उनका एक एक कदम ज्यों ज्यों आगे बढ़ा  
बहने लगी संगीत की बयार थम थम के 

दिल की धड़कन ने तो दिल ही थाम लिया
धड़कता रहा उनकी इंतज़ार में थम थम के 

सीने में ललक उठी उसे सीने से लगाने की 
बाहें खुलती चली गयीं बेशुमार थम थम के 

बात तो तब बनी जब आंसूओं ने रुख किया 
होने लगी खुशियों की बरसात थम थम के 

अँखियों में नींद की बेशुमारी का ये आलम 
पलकें झपकती रहीं लगातार थम थम के 

आँखें मूँदे बैठे थे कि इंतज़ार मुकम्मल हो 
कब आयी झपकी बेअख्तियार थम थम के 

नींद खुली तो मेरी बाँहों के होश उड़ गए 
क्यों सिसक रहे थे वो लगातार थम थम के 

पायल भी कहाँ रुकने वाली थी अब ‘पाली’
थिरक पड़ी सरगम पर लगातार थम थम के 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia

Friday 24 February 2017

A-241 फिर सवाल कैसा 24.2.17--12.48 AM

A-241 फिर सवाल कैसा 24.2.17--12.48 AM

ज़िन्दगी तो ज़िन्दगी है फिर सवाल कैसा 
कौन सा सवाल ज़िन्दगी से मलाल कैसा 
उलझन में खड़ी हो या सरकती हो जिंदगी 
न कुछ सही न ग़लत फिर ये बवाल कैसा 

हर जबाव लाता इक सवाल उलझन का 
फिर भी ढूँढ़ते फिरते हो यह जबाव कैसा 
उलझन ही तो ज़िन्दगी की रफ़्तार बनी है 
उलझन में ही खड़े हो दिल बेक़रार कैसा 

मत उलझ जिंदगी से उसका धर्म समझ 
ठोकरें मार मार सिखाती खिलवाड़ जैसा 
आज जो भी हो ठोकरों की बदौलत हो 
फिर ठोकरों से भला क्यों इन्कार कैसा 

इतनी बेरुख़ी इतनी मोहब्बत की कमी 
अपनों से रूठना फिर यह ऐतबार कैसा 
अपने ही हैं जिनसे तक़रार कर सकते हो  
अपने ही न होते तो सोचो तक़रार कैसा 

गर किसी का दामन थाम ही लिया है 
तो उसको गले लगाने से इन्कार कैसा 
प्यार के दो मीठे बोल गर निकलते नहीं 
कड़वे शब्दों का बे वज़ह इज़हार कैसा 

मत भूल आँखें चार हुई थी तो प्यार हुआ 
उन्हीं आँखों में फ़ितरत का अम्बार कैसा 
प्यार तो तुमने डूब जाने के लिए किया था 
अब डूब गए हो तो डूबने से इनकार कैसा 

समंदर की लहरों में सिर्फ वही रह पाते हैं 
जिसने सीख लिया समर्पण तो राज कैसा 
मत ख़ौफ़ कर समन्दर की लहरों का पाली 
उनके बिना ज़िंदगी कहाँ वर्ना इज़हार कैसा 

लहरें ही सिखाती हैं ज़िंदगी की उछल कूद 
वर्ना कौन रूठे मनाये और यह तक़रार कैसा 
प्यार के रंग हैं तो सारे रंग घुल मिल जाते हैं 
वर्ना रंगों को भी कौन पूछे और इज़हार कैसा 

Poet: Amrit Pal Singh Gogia ‘Pali’

Monday 20 February 2017

A-240 मेरी तस्वीर झलकती है 19.2.17--4.38 AM

A-240 मेरी तस्वीर झलकती है 19.2.17--4.38 AM

अब दिखने लगा है सब आईने में 
मेरे खुद का स्वरुप सही मायने में
मेरी बदसलूकी मशरूम होने लगी 
देखा खुद को जो निर्वस्त्र आईने में 

मेरा होना ही उनका प्रतिबिम्ब बना 
मेरा ही प्यार बना माशूक आईने में 
मेरा चुम्बन उनके सर चढ़ के बोला 
आओ न समीप अब मेरे आईने में 

हर्फ़ों का जादू उनकी आँखों में था  
नैन नशीले होंठ रसीले बाँहों में था 
ढूँढ़ते रहे खुशियाँ सच के मायने में 
वो भी दिखी केवल अपने आईने में 

उनका मुकद्दर मेरा जाम बन गयी 
उनकी हुक़ूमत मेरा नाम बन गयी 
उड़ेलते रहे ज़हर वो मेरे पैमाने में 
हम आईने को देखते रहे आईने में 

धुंदलापन सा दिखे अपनी गैरत में 
मैं परेशान क्यों हूँ अब भी हैरत में 
क्यों धो डाले रिश्ते किस मायने में 
अब दिखने लगा मुझे सब आईने में 

मेरी रहनुमाई ही बने उनके जेवर थे 
मेरी बेबफ़ाई ही बने उनके तेवर थे 
मेरा स्वभाव ही उनका स्वभाव बना 
दिल का हर भाव उनका भाव बना 

हँसी हंस के फव्वारे हँसी लाते थे 
गुस्से के भाव तो गुस्सा दिखाते थे 
रोना देखकर तो रोना ही आता था 
उदासी का हक़ उदासी जताता था 

तुम ही हो जैसा निर्माण करते हो 
जैसा चाहो वैसा निर्वाण करते हो 
अलग अलग भी देखा कई मायने में 

मेरे ही प्रतिबिम्ब दिखे हर आईने में 

Poet: Amrit Pal Singh Gogia 'Pali'

Tuesday 14 February 2017

A-238 मेरी फ़ितरत नहीं है 15.2.17--6.27 AM

A-238 मेरी फ़ितरत नहीं है 15.2.17--6.27 AM

मेरी फ़ितरत नहीं है ऊँगली उठाना 
वर्ना हरेक ऊँगली को उठाना पड़ता 
किस किस का जवाब देती फिरती
हर एक सवाल को दोहराना पड़ता 

मेरा धर्म है मैंने तुमसे प्यार किया है 
वर्ना नफ़रत का भार उठाना पड़ता 
शुक्र कर मिल गया मैं ज़िन्दगी में 
वर्ना खुद को खुद से हराना पड़ता 

खो गयी ज़िंदगी बीच मझदार कहीं 
वर्ना हर ज़ख्म यूँ ही छुपाना पड़ता 
तेरी नफ़रत सदक़ा शायर बन गया 
वर्ना ज़ुबान पे ताला लगाना पड़ता 

तेरी बेवाकी बड़ी खुदगर्ज़ निकली 
वर्ना तुमको खुदगर्ज़ बनाना पड़ता 
आँसूओं को तरस आ जाता अगर  
फिर तुझको यूँ न समझाना पड़ता 

तेरी हुकूमत के तो हम कायल हैं 
वर्ना बोझ समझ के उठाना पड़ता 
तेरी हुकूमत सदक़ा प्यार करते हैं 
वर्ना तुमको रोज ही भुलाना पड़ता 
Poet: Amrit Pal Singh Gogia ‘Pali’

Sunday 12 February 2017

A-237 बहुत घमंड है 13.2.17--6.27 AM

A-237 बहुत घमंड है 13.2.17--6.27 AM

बहुत घमंड है  
बहुत घमंड है मुझे धनवान होने का 
कोई गम नहीं अब ईमान खोने का 
सच सामान की बेड़ी छोटी हो गयी 
बड़ी नाव भरी बहुत सामान ढोने का 

बहुत घमंड है 
अपनी पढाई लिखाई बेईमान होने का 
अपनी कुर्सी और पद्द पहचान होने का 
फरमान अपने भी खूब चलते हैं "पाली" 
संकोच नहीं अब न रहे इंसान होने का 

बहुत घमंड है 
सुन्दर काया बलिष्ठ निर्माण होने का 
बाहुबली कद की काठी मान होने का 
दूसरों को रौंद अपनी काठी सजाकर 
बलिष्ठ होने का मन बेईमान होने का 

बहुत घमंड है 
सुन्दर वेशभूषा गहने व ब्रांड होने का 
सुन्दर नारी परिचय पहचान होने का 
औरों को कुचल खुद धनवान बनकर 
ऊँची पहुँच वर्चस्व के निदान होने का 

बहुत घमंड है 
न कर घमंड 'पाली' तू ईमान खोने का 
उठ जा, उठकर देख नुक्सान सोने का 
चाहत तेरी भी है एक इंसान बन जाऊँ 

फिर कैसा इंतज़ार व फरमान होने का 

Poet: Amrit Pal Singh 'Pali'

A-002 आज मेरी कविता मेरे पास VDO

Saturday 11 February 2017

A-235 बहाना ढूँढते हो 8.2.17--8.12 AM

A-235 बहाना ढूँढते हो 8.2.17--8.12 AM

बहाना ढूँढते हो 
कभी मुस्कुराने का 
कभी खिलखिलाने का 
झूठी हँसी हँसकर 
दूसरों को हँसाने का 

बहाना ढूँढते हो 
गुमशुदा हो जाने का 
खुद से उलझ कर  
निराशा का ढोल पीट 
दूसरों को समझाने का 

बहाना ढूँढते हो 
अपना दुःख जताकर 
दूसरों को बताने का 
दूसरों की सहमति हो 
अँखियों में पानी लाने का 

बहाना ढूँढते हो 
खुद को सही बता 
इसके कारण गिनाने का 
दूसरे कितने ग़लत हैं 
उनकी बेवकूफी जताने का 

बहाना ढूँढते हो 
झूठ में छिप जाने का 
दूसरों की सहमति हो 
बच के निकल जाने का 
निकल कर मुस्कुराने का 

बहाना ढूँढते हो 
धर्म की चादर ओढ़
अपने ढोंग छुपाने का 
जिम्मेवारी से दूर भाग 
धार्मिक कहलाने का 

कब तक ढूँढते रहोगे 
जो कहीं है ही नहीं 
सब तेरा किया है  
तेरे ही शब्द हैं सही 

मौका अभी भी है 
जी लो सच के संग 
न रहे पछतावा कोई 
जिंदगी में रहे उमंग 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

Monday 6 February 2017

A-234 इन हसीन वादियों में

A-234 इन हसीन वादियों में 

इन हसीन वादियों में क्या रखा है 
उलझन उधेरबुन ने उलझा रखा है 
कब आएगी और कब नहीं आएगी 
सिलसिला ये बदस्तूर बना रखा है 

उसके आने की ख़बर हज़ूम टूट पड़े 
कइयों को उसने यूँ ही जता रखा है 
कइयों की रोज़ी रोटी का सामान है
कइयों को उसने यूँ ही दौड़ा रखा है 

कभी धूप कभी छांव का खेल सारा 
सारे जगत में यह शोर मचा रखा है 
क़ुदरती करिश्मा कहकर ये बहकती 
अच्छों अच्छों को पानी पिला रखा है 

नहीं बहकती है तो वह एक ही अदा 
कभी ओले कभी पानी बना रखा है 
दुनिया देखने आती मखमली चेहरा 
कभी दिखाती वर्ना वही छुपा रखा है 

इसकी ख़ूबसूरती भी तेरे चाहने में है 
वर्ना कौन पूछता है क्या छुपा रखा है 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”