A-355 वक़्त 9.3.18--7.50 AM
कहीं रंगों की छींटाकशी और कहीं ज़माने भर की सुर्खियां
कहीं मज़हब के आला कमान छीन रहे गरीबों की बुरकियाँ
कोई मर रहा किसी की खातिर कोई बीन रहा तंदरुस्तियाँ
यह कैसा सिलसिला कैसा ज़लज़ला कैसा यह मलाल है
वक़्त बीमार चल रहा वक़्त का बुरा हाल है
कहीं सुर्ख़ लाली का तसव्वुर कहीं कालिमा का इंतज़ार है
हर दूसरा रंग दूसरे रंग को ख़ुद में मिला लेने को बेक़रार है
कितने रंगों को अभी अपने रंग के बारे समझ भी नहीं आया
बात अभी शुरू होनी ही थी कि एकदम मच गया बवाल है
वक़्त बीमार चल रहा वक़्त का बुरा हाल है
कहीं नस्लों का भेद भाव तो कहीं हो रहा आपसी तनाव है
भेद भाव बिकने लगा अब तो इनका भी अपना ही भाव है
कोई अयोध्या राम का कोई कर रहा बाबरी का चुनाव है
शरेआम बिकते रहे ये भेद भाव हर कोई इसका दलाल है
वक़्त बीमार चल रहा वक़्त का बुरा हाल है
शांति के पुजारी हैं पर इनका जीना भी हो गया हराम है
हो रहे क़त्लेआम को अब ये कहते हैं कि धर्म के नाम है
उनके हाथों जो क़त्ल हुआ कहीं कोई जिरह न कीजिये
वर्ना कहीं अल्लाह कहीं राम को भी हो जाना मलाल है
वक़्त बीमार चल रहा वक़्त का बुरा हाल है
जो भी मिले थे मज़हब के नाम दलीलों के दहलीज पर
घर बैठकर तमाशा देखे जा रहे हो थोड़ी तो तमीज़ कर
यह फिल्म नहीं सरहद तक जाने की नौबत फ़िलहाल है
गलियों का ज़ुकाम छोड़ दो उसी ने बन जाना गुलाल है
वक़्त बीमार चल रहा वक़्त का बुरा हाल है
Poet: Amrit
Pal Singh Gogia “Pali”
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लाज़वाब शब्द नहीं कुछ बयाँ कर सकूं
ReplyDeleteबस लाज़वाब लाज़वाब लाज़वाब है।
Thank you so much Arora saheb for your continues feedback and wonderful comments. It inspires me. Gogia
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