A-321 वक़्त का आइना 3.10.17--9.09 AM
वक़्त का आइना तुमने कभी देखा है
कितने रिसते हुए ज़ख़्मों का लेखा है
मोहब्बत की दास्ताँ का अपना भ्रम है
प्यार का रस है अपना अपना करम है
रिश्तों को उसने क्या ख़ूब निभाया है
ऐसा हक़ तो केवल उसी ने जताया है
प्यार के शब्दों को न कभी मिलाया है
जब शब्द टूटा शब्दों से ही निभाया है
जानते होते ज़ख़्मों की रिसने की रवायत
सम्भल जाते न करते कोई नयी क़वायत
न दर्द सहने पड़ते न उनका तजुरबा होता
ख़ून रिसता तो क्या सिर्फ अजूबा होता
सोया होता है आलम तो हम जागते हैं
प्यार क़समें वादे भी हम ख़ूब जानते हैं
दूरी इतनी कम कि हवा भी संकोच करे
हवा की तंगदिली भी रह रह विनोद करे
रिश्ते निभाना तलवार की धार खेलना है
जिंदगी की कश्मकश और दंड पेलना है
ज़िंदगी निडर है या जिंदगी भी जज़्बात है
जीना भी एक कला है या एक करामात है
Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”
Wow superb
ReplyDeleteVery Nice Sir ki
ReplyDeleteThank you so much Permendar!
DeleteSir Ji
ReplyDeleteबहुत खूब हर एक पंक्ति में अपना अलग ही अंदाज है
ReplyDeleteहर पहलू का बयां खूबसूरत और लाजवाब है।
शभकामनाएँ।
Thank you so much Arora Ji for you wonderful comments and feed back. Gogia
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