Tuesday 3 October 2017

A-321 वक़्त का आइना 3.10.17--9.09 AM

A-321 वक़्त का आइना 3.10.17--9.09 AM

वक़्त का आइना तुमने कभी देखा है 
कितने रिसते हुए ज़ख़्मों का लेखा है 

मोहब्बत की दास्ताँ का अपना भ्रम है 
प्यार का रस है अपना अपना करम है 

रिश्तों को उसने क्या ख़ूब निभाया है 
ऐसा हक़ तो केवल उसी ने जताया है 

प्यार के शब्दों को न कभी मिलाया है 
जब शब्द टूटा शब्दों से ही निभाया है 

जानते होते ज़ख़्मों की रिसने की रवायत 
सम्भल जाते न करते कोई नयी क़वायत 

न दर्द सहने पड़ते न उनका तजुरबा होता 
ख़ून रिसता तो क्या सिर्फ अजूबा होता 

सोया होता है आलम तो हम जागते हैं 
प्यार क़समें वादे भी हम ख़ूब जानते हैं 

दूरी इतनी कम कि हवा भी संकोच करे 
हवा की तंगदिली भी रह रह विनोद करे

रिश्ते निभाना तलवार की धार खेलना है 
जिंदगी की कश्मकश और दंड पेलना है 

ज़िंदगी निडर है या जिंदगी भी जज़्बात है 
जीना भी एक कला है या एक करामात है 



Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

6 comments:

  1. बहुत खूब हर एक पंक्ति में अपना अलग ही अंदाज है
    हर पहलू का बयां खूबसूरत और लाजवाब है।
    शभकामनाएँ।

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  2. Thank you so much Arora Ji for you wonderful comments and feed back. Gogia

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