Wednesday 17 October 2018

A-406 कैसे ढूँढूँ 17-10-18—3.59 AM


कैसे ढूँढूँ मैं अब अपने प्यार को, 
कैसे समझाऊं मैं इस बयार को 
आंखों के सामने धुंध छा गई है, 
अब कैसे दिखे कि वो आ गई है 

दूर-दूर तक कुहासा ही कुहासा 
जो भी दिखे वो आधा ही आधा 
रोशनी भी कहीं गुम सी हो गई है 
मुसव्विर भी कहीं सुस्त हो गई है 

पंछी भी थोड़े गुमसुम से बैठे हैं 
किसी को भी कुछ नहीं कहते हैं
न कहकर भी वो बहुत कहते हैं 
न जाने कौन सा दर्द वो सहते हैं 

दबे पावों अब दूब से निकलना 
उसकी छाती पर पाँव न रगड़ना 
मोतियों ने अपना घर बना रखा 
ग़लती से भी उनको न मसलना 

कलियाँ भी सहजे दुबक गई हैं 
मोतियों संग थोड़ी बहक गई हैं
नहीं कोई ऐसे जो इनसे निभायें 
जो रवि समदर्शी ताज़गी दिलाये 

रवि की रंगत रंग घोलने लगी है 
धुंध थोड़ी क्षीण डोलने लगी है 
धूप भी खुलकर निखरने लगी है 
पुरुषों की संख्या बढ़ने लगी है


ठंडी पवन के झोंके आने लगे हैं 
हर जन को थोड़ा सताने लगे हैं
बुल्ले कोई संगीत सजाने लगे हैं 
उदास चेहरे भी मुस्कराने लगे हैं

हर बदन से खुशबू सी आई है 
फ़िज़ा देखो खुलकर मुस्कराई है
'गोगिया' कर ले फिज़ा से प्यार 
मिट जानी तेरी सारी तन्हाई है 

Poet: Amrit Pal Singh ‘Gogia’

2 comments:

  1. Written so well . Every word chosen reflects the wandering mind ..

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  2. Thank you so much for your wonderful comments! Gogia

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