A-071 दोहों में एक दोहा 22-7-15—5.56 AM
दोहों में एक दोहा मुझे बहुत पसन्द आता है
अधूरे सपने की तरह आकर बहुत सताता है
हर रात एक नयी सूझ वो मुझको बताता है
ज़िंदगी को सपना कहकर मुझे समझाता है
एक रात मैं सवप्न में दोहे के साथ हो लिया
चला गया बचपन और सपना संजो लिया
मेरी ऊँगली थामे-थामे वह भी मुस्कुराता रहा
छोटी मोटी बातें करता हुआ वह बताता रहा
थोड़ा-थोड़ा तो मुझे भी समझ आने लगा था
बात अधूरी थी मगर मैं गले लगाने लगा था
ऊँगली थामे थामे लीची के बगीचे हो लिया
घने वृक्षों के संग मैंने एक रिश्ता जोड़ लिया
कितनी आज़ादी है इनको झूम झूम जाने की
तभी मैंने भी जिद्द की एक गुच्छा तुड़वाने की
पेड़ भी छिन्न-भिन्न हुआ जख्मी लुहान हुआ
पड़ा था जमीन पर जैसे ख़ुद ही पैग़ाम हुआ
नहीं थी कोई आज़ादी न कैदिओं सी ज़िंदगी
न कोई संघर्ष हुआ न ही वादिओं सी बन्दगी
हम देख देख मुस्कुराते रहे उस घने वृक्ष को
तनों से टूटे हुए लहराते कोमल से दृश्य को
न उनमें कोई सपना था न कोई मलाल था
ख़ुशी प्रेरणा से जुड़ा वो रिश्ता कमाल था
फल तोड़ लिए जायेंगे, टहनियाँ भी तो टूटेंगी
कितनी अपंग होंगी कितनी फूट फूट फूटेंगी
कौन रोक सकता है हो रहे ऐसे नरसंहार को
कौन फूटेगा कैसी किस्मत कैसे किरदार को
फलों से लदी टहनियाँ बोझ को उठाये हुए
झुकी हुई जमीं पर व अपने होश गवाए हुए
समर्पित हैं अपने माली समक्ष मुस्कुराये हुए
अगले मौसम फिर मिलूंगी फल सजाये हुए
निकल पड़े हम ज़िंदगी के अगले पड़ाव में
ज़िन्दगी पीछे रख कर किताबी प्रस्ताव में
दोहे की ख़ुशी रुकी हमारे ही मनमुटाव पे
हमने समझौता कर लिया उसके सुझाव पे
फर्क कर डाला हमने ज़िन्दगी के खेल का
पढ़ना लिखना होता आपसी ताल मेल का
सपने संजो कर खेलने भी जाओ खुश रहो
किस्से कहानियाँ सुनो और आगे चुप रहो
हमने भी ठान लिया कुछ कर के दिखाएंगे
अपने हाथों करके कुछ लोगों को बताएँगे
आज अकड़ते हैं वही इसको आजमायेंगे
हमारे परिणाम देख ख़ुद ही समझ जायेंगे
लगाया जोर ज़िंदगी में दीवानों की तरह
पागलों की तरह कुछ मस्तानों की तरह
न ख़ुशी का पता न ग़म का ठिकाना था
ज़िंदगी पता नहीं दुनिया को दिखाना था
हर एक पहर ज़िंदगी का आने जाने लगा
कभी चुटकियाँ लेता कभी मुस्कुराने लगा
कैसा वक़्त आया जो मुझे ही सताने लगा
ऐसा तो सोचा नहीं पर मन घबराने लगा
किसको किसको अब अपनी बातें बताऊँ
किस्से कहानियां को अब मैं कैसे सुनाऊँ
सब्र करूँ ख़ुद रो लूँ या औरों को रुलाऊँ
समझ नहीं आता ख़ुद को कैसे समझाऊँ
दोहा मुझे देखकर फिर से थोड़ा मुस्कुराया
कहा था न कि मत खेल यह खेल है पराया
कुछ भी अपना नहीं सब एक सपना बताया
मौज मस्ती कर लो उसी में जो तुमने पाया
ज़िंदगी की बौछार कुछ रिझाने आने लगी
बात दोहे की कुछ कुछ समझ आने लगी
तन बदन कहीं एक सिहरन सी उठने लगी
यह भी तो सपना है यह बात दिखने लगी
दोहों में एक दोहा मुझे बहुत पसन्द आता है
अधूरे सपने की तरह आकर बहुत सताता है
Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”
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Great sir, ur poems are awesome
ReplyDeleteIts really very nice gogia sahab ........we didn't aware od that u write so well .....
ReplyDeleteIts really very nice gogia sahab ........we didn't aware od that u write so well .....
ReplyDeleteIts really very nice gogia sahab ........we didn't aware od that u write so well .....
ReplyDeleteTruly all poem awesome
ReplyDeleteSir aapki sari poem kamaal hai dhamaal hai bemisaal hai
ReplyDeleteTruly all poem awesome
ReplyDeleteVery nice , appriciable
ReplyDeleteThank you so much Sharma Ji! For your appreciation!
DeleteVery nice Sir
ReplyDeleteThank you so much Nishan for your appreciation!
Deleteआप की कविताओं का जवाब नहीं है।
ReplyDeleteबार बार पड़ता हूँ पड़ता ही जाता हूँ।
वक्त जैसे ठहर सा जाता है,
बयार शीतल और मद्धम हो स्पर्श कर
एह्सास दिलाती कोई अपनी लेखनी को विराम ना देकर
कुछ और हमारे लिए नई प्रस्तुति के लिए अग्रसर,
नए विचारों में डूब रहा है।
Thank you so much Arora Ji! I really appreciate your love for my poetry! This is all inside of your love & Appreciation! Thanks for being with me.
DeleteRegards! Gogia
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ReplyDeleteAlready replied and sent you new links. Thanks
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