इतनी सज धज के तुम न जाया करो
फूलों की तरह तुम न मुस्कुराया करो
किसी को देखकर तुम न शर्माया करो
अपने दिल की बात तुम न बताया करो
तुम न जाया करो …
यूँ जुल्फें निकलकर चोटी को खिलारकर
सोलह सिंगार से नज़रों को वार कर
आँखें मटका कर नज़रें झुका कर
कन्धे झटका कर ओढ़नी गिरा कर
तुम न जाया करो …
आँखों में कजरे का शमशीर बनाकर
पलकों पर कजरा को सुन्दर सजाकर
नाक में नथनिया संगली को फसाकर
कानों के झुमके में झुमकी लटकाकर
तुम न जाया करो …
गर्दन घुमा कर उनके होश उड़ा कर
सीने से लगा हार सबको दिखाकर
कमर कमरधन्नी थोड़ी लचका कर
अपने क़दमों को थोड़ा बहका कर
तुम न जाया करो …
लोगों की फजीहत और बुरी नीयत में
दुनिया के मेले में और कहीं अकेले में
अजनबियों के बीच अपनों के समीप
सैरगाह के झमेले में सर्कस के मेले में
तुम न जाया करो …
किसी के गाँव में तारों की छावँ में
रात अँधेरी हो सुबह की फेरी हो
भीगी चुनरिया हो चाहे देवर ही हो
मौसम सुहाना हो दिल परवाना हो
तुम न जाया करो …
अपने उदास हों जो हमारे खास हों
रास्ते को छोड़कर रिश्ते मरोड़ कर
नजरें घुमा कर मुँह को छिपाकर
निराशा के अँधेरे में सोच के घेरे में
तुम न जाया करो …
इतनी सज धज के तुम न जाया करो
फूलों की तरह तुम न मुस्कुराया करो
Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”
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