Wednesday 19 August 2015

A-122 मैं जानता हूँ 31.07.2020--9.04 PM


मैं जानता हूँ कि तुम क्या चाहती हो 
पर यह बात मुझसे क्यों छिपाती हो 

तुम्हारी हर बात में हाँ छिपी होती है 
कभी आँख बंद कभी झुकी होती है 

एक बार मिले हम सावन के मेले में
बातचीत भी हुई बिल्कुल अकेले में

आगोश में आकर बेहोश हो गयी थी 
कैसे लिपट कर बाँहों में सो गयी थी 

पकड़े गये तो रंग आता जाता था
उस फजीहत में हर कोई सुनाता था

किसी ने एक सुनी मौका दिया 
फिर हमने भी उनसे समझौता किया 

सपने हकीकत में बदलना चाहता हूँ 
तभी तो हर बात पर मैं मुस्कुराता हूँ 

तूने कहा था कि तुम प्यार करती हो
साथ रहने का तुम इकरार करती हो

सीने से लगी तूने नज़रें मिलायी थी 
कभी शरमा और कभी मुस्कुराई थी

दिल की बात जब भी तूने बताई थी 
तेरे प्यार की तड़प होठों पे आयी थी 

हवा तेरे होंठों से जो छू कर आती है
कसम से मेरी जान निकल जाती है 

तेरे चेहरे पे जब हया सिमट आती है
मेरी ज़िन्दगी मन्द-मन्द मुस्कुराती है

जिस क़दर अपनी बाँहों में भरती हो 
जग ज़ाहिर है, प्यार बहुत करती हो 

अमृत पाल सिंह 'गोगिया'

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