A-117 रोज सुबह 15.6.15 5:37 AM
अंधेरा थोड़ा कम हुआ जाता है
रवि के आने की ख़बर बताता है
लाल गोला जैसे ही मुस्कुराता है
हर चेहरा खिलता चला जाता है
धूप खुलकर निखरने लगी है
चहलकदमी अब बढ़ने लगी है
फिजा भी अब महकने लगी है
चिड़ियाँ भी अब चहकने लगी हैं
किरण उम्मीद बनकर आयी है
सुनहरे रंग बिखेरती वो छाई है
चिड़िओं में एक उमंग जागी है
ये उड़ी वो उड़ी और वो भागी है
ठंडी हवा के झोके आने लगे हैं
हर बदन को छूकर जाने लगे हैं
हवा के हिलोरे बल खाने लगे हैं
खूबसूरत चेहरे मुस्कुराने लगे हैं
कहाँ मिलता यूँ ज़मीं से आसमाँ
कहाँ मिलता ऐसा सुन्दर कारवाँ
कहाँ मिलते ये हवाओं के बुल्ले
कहाँ मिलते ये दतवन ये कुल्ले
कहाँ मिलता इतना रंगी ये समाँ
मिलती आज़ादी घूमे सारा जहाँ
कली फूल बनकर खिलती वहाँ
हर कोई कद्र करे कुदरती यहाँ
कहाँ मिलता पंछियों का खज़ाना
हवा में लहराना बल खाते जाना
भरनी उड़ान फिर उड़ते हुए जाना
बिछुड़ कर भी एक जुट हो जाना
ऊँची उड़ान भर इतराते जाना
मटक-मटक कर शोर मचाना
औरों के साथ गाने भी गाना
कुदरत की रौनक बढाते जाना
डालियों पर बैठ निगाहें दौड़ाना
एक ने उड़ना सब ने उड़ जाना
घूम फिर कर वापस आ जाना
सबने मिलकर शोर भी मचाना
हमें सोते हुए से भी जगाना
हमें आगाह भी करते जाना
सुस्ती को भी साथ लेकर आना
रोज़ सुबह भी तुम जल्दी आना
Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”
सुबह का क़ुदरती नज़ारा बहुत अच्छे से बयाँ कीया है। आजकल हम इतने वयस्त हो गए है कि हम क़ुदरत को महसूस ही नहीं कर रहे हैं। यह हमारी बद-किस्मत ही है। धन्यवाद
ReplyDeleteBilkul sahi
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद!
DeleteYeh nazare aaj kal ki generation ko patta nahi hai ..kaash bachpan phir lot atta
ReplyDeleteThat’s very true and thank you so much for reaching my poetry and comments! Gogia
ReplyDeleteNice one
ReplyDeleteThanks Neelu! You inspire me. Love You!
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