Monday 6 November 2017

A-332 आँचल तेरा गीला 20.10.17--6.53 PM

A-332 आँचल तेरा गीला 20.10.17--6.53 PM

आँचल तेरा गीला सूख गया है दूध
बातूनी हलचल में भूल गया वजूद
न तू नर है न तू नारी दुविधा ये सारी 
दायित्व से बची है क़िस्मत की मारी

गृहणी करती थी हर जन की सेवा 
पता नहीं मिलता था कौन सा मेवा 
पर चेहरे पर रौनक होता था सकून 
अच्छा अच्छा हो एक ही था जनून 

बेटी को मिलता था बाप का प्यार 
ममता खिल जाती बन कर सिंगार 
भाई को मिलता राखी का त्यौहार 
बहन को मिलता सहेली का प्यार 

ख़ुशी और गम जिसका भी फेरा हो 
उसमें क्या तेरा हो और क्या मेरा हो 
नहीं फर्क था उस थाली के भाव में 
आज हम जी रहे उसी के आभाव में 

एक थाली ही खिला देती थी घर को 
एक बात रुला देती थी सारी जड़ को 
नहीं भूलते कभी खुशियों का वो मंझर 
मर्म सा एक स्पर्श होता सबके अंदर 

कहाँ गयी वो नन्ही सी राजदुलारी 
माँ की ममता व पापा की सचियारी 
लील गयी उसे इस ज़माने का धारा 
न रहा बचपन न रहा जज़्बात प्यारा 

Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”



4 comments:

  1. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  2. मैं बचपन से चोर था
    चोर ही रहा जीवन भर
    जेब से पैसे चुराए
    पेड़ से आम नींबू
    बहती नाव से तरबूजे
    पानी से छोटी मछलियाँ
    क़िताबों से कविताएँ

    डाकू न बन सका
    गिरोह नहीं बनाए
    सच्चे कायरों की तरह
    आदमी और कवि
    दोनों रोए पछताए

    ~ मैं बचपन से चोर था / अमिताभ बच्चन

    ReplyDelete
  3. भुला के नींद अपनी सुलाया हमको,
    गिरा के आंसू अपने हंसाया हमको,
    दर्द भी ना देना उन हस्तियों को,
    खुदा ने मां बाप बनाया जिनको।

    ReplyDelete