Saturday 8 December 2018

A-423 प्यार 7.12.18--7.47 AM


प्यार ज़रूरत का इक सामान हो गया 
थोड़ा सा दर्द उठा तो बेईमान हो गया 
चलते चलते जहाँ ज़रूरत पूरी हो गई 
कम्बख़्त ज़रूरत ही इन्तक़ाम हो गया 

चलो एक नए चलन को आजमाते हैं 
किसी अपने को हम अपना बनाते हैं 
दो मीठे बोल बोलकर देखो तो सही 
देखो अपने फिर तुम्हें कैसे सुहाते हैं 

न रखो कसक न रखो शिकवा कोई 
यह तो केवल दर्द लिवा कर आते हैं 
तुम खुद भी जियो औरों को जीने दो 
तब देखो हसीं पल कैसे मुस्कुराते हैं 

जो जिसने किया वो उसकी तमन्ना है 
हम भला क्यों इसमें दक्षता दिखाते हैं 
हरेक को हक़ है अपनी मर्ज़ी से जीये 
दूसरों की मर्ज़ी में ही उत्सव मनाते हैं 


उनकी ख़ुशी में अपनी ख़ुशी को देखो 
वो छणिक पल भी देखो कैसे भाते हैं 
उन्हीं पलों में छिपे हुए हैं हज़ारों हीरे 
जो तुझपर न्योछावर होते ही जाते हैं 

Amrit Pal Singh ‘Gogia’








3 comments:

  1. आपकी कविता मैं प्रेम को वयक्त करने की शैली प्रेम का अभूतपूर्व एहसास दिलाती है। हर पहलू पर सटीक विश्लेषण आप की प्रतिभा के सागर का साक्षात आभास दिलाती है।
    हम तो बस यही कहेंगे......

    प्रेम तब तक सिर्फ एक शब्द भर है जब तक आप इसका अहसास नहीं कर लेते।

    ReplyDelete