Saturday 27 February 2016

A-191 तेरा करीब आना 28.2.16—8.00 AM

A-191 तेरा करीब आना 28.2.16—8.00 AM

तेरा करीब आना और फिर मुस्कराना
नज़रें करीब लाना और मुझको बुलाना
थोड़ा सा प्यार करना थोड़ा सा जताना
खामोश निगाहों से देखना और चुराना
अच्छा लगता है..!

जुल्फों को सवाँरना मुझको पुकारना
जुल्फें उड़ती जाना उनको सम्हालना
माँग टेढ़ी होना और लटों को लटकाना
चेहरे झटकना फिर लटों को झटकाना
अच्छा लगता है..!

कभी खामोश होना कभी खिलखिलाना
कभी मुझको बुलाना और दूर भाग जाना
कभी मौन हो जाना कभी खुद ही बताना
दूर खड़े होकर भी धीरे धीरे से मुस्कराना
अच्छा लगता है..!

आँखें मूँद लेना कहीं और चले जाना
वापस आना तो फिर हौले से मुस्काना 
खो गयी थी कहकर खुद ही समझाना
आँखें बंद कर खुद ही गले लग जाना
अच्छा लगता है..!

होठ गुलाबी होना थोड़ा सा शराबी होना
नयन कटीले होना  भृकुटी मेहराबी होना
खुला इज़हार करना दिल बेक़रार होना
प्यारा सा चुम्बन और फिर बेशुमार होना
अच्छा लगता है..!

Poet; Amrit Pal Singh Gogia "Pali"



A-180 कौन सी तस्वीर 31.07.2020--7.12 PM


कौन सी तस्वीर बनाऊँ तुम्हारी 
हर पल मटकती बयार देखी है 

एक पल प्यारी भोली भाली सी 
दूसरे पल मिर्ची गुलाल देखी है 

तू मुस्कराये तो फूल झरने लगें 
दुसरे पल सूखी टटाल देखी है 

कभी अदा निराली सुर्ख लाली 
दूजे पल शर्म से लाल देखी है 

कभी मतवाली सुगन्ध निराली 
गाहे-बेगाहे ज़ार-ज़ार देखी है 

बहुत सहज़ता की मूरत देखी 
कभी होती है बेक़रार देखी है 

कभी होंठ सिले हया का पर्दा 
कभी बड़बोली बेवाक देखी है 

उमड़ जाये तो प्यार क़ाबू नहीं 
कभी नफरत भरी नार देखी है 

देखा अपनी बाँहों में गिरते हुए 
कभी ढोंगी और बेज़ार देखी है 


अमृत पाल सिंह 'गोगिया'

Wednesday 24 February 2016

A-109 कितने डरे हुए हो 23.2.16--7.51 AM

A-109 कितने डरे हुए हो 23.2.16--7.51 AM

कितने डरे हुए हो कितने सधे हुए हो
मौत का जो डर है कितने मरे हुए हो

ये पूजा ये पाठ ये संध्या का साथ
ये मन्त्रों का जाप करो दो दो हाथ

ये मंदिर गुरूद्वारे मस्जिद के इशारे
तेरे होने का तरीका बैठे रहो किनारे

इंसान नहीं, डर फरियाद करता है
भगवान नहीं, डर निवास करता है

साँस तो लेता है, बार-बार मरता है
बक्श मिले, सच से इंकार करता है

तुम्हारी सारी पूजा ऋद्धि-सिद्धियां
लाखों आडम्बर दिखावे के बवंडर

जोग-पूजा स्नान चाहे करो सम्मान
झूठा है अभिमान चाहे कर लो दान 

ये मन्दिर गुरूद्वारे तुमने जाने नहीं इशारे
फर्क नहीं पड़ता चाहे मर्ज़ी करो फव्वारे

तुम अपनी गलतिओं से मिलने जाते हो
छोटे हो जाते फिर बौने होकर आते हो

मिलेगा वही जिसपर ध्यान सदा होगा
जिसको ध्याया है वही तो अदा होगा

एक अदने अफसर से मिलकर आते हो
कितना गुनगुनाते और ख़ुशी जताते हो


प्रभु से मिलकर आये फिर भी मुरझाये हो
सब झूठ है न……?

उससे मिलने जाओ तो उससे मिलने जाओ
उसके बीच में ये प्रार्थना ये दोष मत लाओ

जो बीच में आ गया उसी से तो मिल पाओगे
कोशिश करो फिर सोचो कैसे पहुँच पाओगे

तुम डरपोक हो डरते हो उसको अपनाने से
गर साथ हो लिया तो फिर साथ निभाने से 

फिर झूठ कहाँ छिपेगा सच कैसे बताओगे 
किसको तुम ठग पाओगे कैसे तुम हराओगे

ठगी का ये खेल सारा समझ नहीं पाओगे 
ठगे से रह जाओगे ख़ुद ही गुम हो जाओगे

और ऐसा क्या जो तुम कदापि नहीं चाहते
फिर वो सच, जो झूठा है क्यों नहीं बताते  

जो झूठ है उसका सच गर बता दिया होता 
रिश्ते भी बन गए होते आज़मा लिया होता 

बोलो सच है न? सब झूठ है! सब झूठ है न?


     Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

Tuesday 23 February 2016

A-096 बिसर गयीं यादें 24.2.16—7.29 AM

A-96 बिसर गयीं यादें 24.2.16—7.29 AM
Dedicated to my wife on our marriage anniversary 

घिर गयीं यादें याद आये तुम 
तन्हा हुए हम बारात लाये तुम

तेरी याद पल पल समाती रही 
तेरी मोहब्बत मुझे जगाती रही 

तुझमें मुझे जगाने का दम था 
तभी तो मेरा आना भी कम था  

तुम ही हो मेरी तब्बसुम नज़ारा
तभी तो बनी मेरी रोशन आरा 

हर रोम है चिंतित तुझे पाने को 
क्या नाम दूँ अब मैं तेरे आने को 

न तुम न मैं सिर्फ हम ही हम हों 
न तुम न मैं सिर्फ हम ही हम हों 

शादी की साल गिरह बहुत बहुत मुबारक हो!


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

Sunday 21 February 2016

A-105 ऐ मेरे मन 21.2.16—7.35 PM

A-105 ऐ मेरे मन 21.2.16—7.35 PM

ऐ मेरे मन!
कैसी उदासी व कैसा प्रसंग 
तन्हा होगी ज़िंदगी या उमंग 

ज़िंदगी के अपने ही तरीके 
अपने चाव ख़ुद रंग सरीखे 

धूप छाँव का यह खेल है 
गिलों शिकवों का मेल है 

जब मन में रहती हो उमंग
शिकवे भी रह लेते हैं संग 

हर लम्हा ज़िंदगी आती है 
हसती है और मुस्कुराती है 

हर बात समझ में आती है 
फिर तेरी मेरी भी भाती है 

मन में ठहरे जो बैराग कहीं  
ज़िंदगी का हो विनाश वहीँ 

हर बात फिर जैसे सताती 
पकड़ भी मजबूत हो जाती

अंग-अंग दहकने लगता है 
आंसूओं का ढेर लगता है

मुकद्दर है ज़िंदगी का, जो कुछ अपने हुए 
अपने हैं इसीलिये शिकवे और सपने हुए 

गिलों शिकवों के बीच ज़िंदगी का सार है 
सपने हैं तो साकार हैं, और वही तो प्यार है 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

Friday 19 February 2016

A-175 उन लम्हों के संग 19.2.16—4.24 AM


A-175  उन लम्हों के संग 19.2.16—4.24 AM

उन लम्हों के संग जीने का मजा अपना है
जिन लम्हों में तेरा चित्र और मेरा सपना है 

आज भी याद है वो तेरा थोड़ा सा शर्माना 
कभी दूर भागना कभी आकर लिपट जाना 

बाँहों में सिमटी कभी मौन कभी मुस्कुराना 
चुम्बनों की बौछारों के संग तूने बरस जाना 

जैसे बर्फ की चट्टानें और गुफा का मुहाना 
श्वासों का रुकना कभी उनका लौट आना 

ओलों का गिरना जैसे मौसम का हो तांडव 
वो गोलों का तांडव जैसे कौरव और पांडव

वो पहाड़ों के टीलों के पीछे आसमान नीले
घंटों हरी घास पर हम लेटे एकदम अकेले

झरनों का शोरगुल वो बहकता हुआ पानी
तुम्हारी वो छींटा कशी तेरा अंदाज़ नूरानी

मचले दरिया का पानी करे अपनी मनमानी
तेरा आलिंगन सुनाये कुछ ऐसी ही कहानी 

दूर सुनहरा पानी रवि से करता कोई कहानी
तेरा उड़ता हुआ पल्लू दिखाए अपनी जवानी 

पल्लू भी तेरा उड़ उड़के अपनी मंशा बताये
कब मौका मिले और जाने कब लिपट जाये 

आओ आज मिल बैठें उसी आसमान के तले
जहाँ तारों का झुरमुट था प्यार के बीज़ पले 

जहाँ चाँदनी हो चाँदनी का ही मधुर संगीत हो
न कोई गिला न कोई शिक़वा न कोई रीत हो

बस मैं रहूँ तू रहे और हमारा मीत हो...
बस मैं रहूँ तू रहे और हमारा मीत हो...


Poet; Amrit Pal Singh Gogia

Tuesday 16 February 2016

A-092 पता नहीं तुमको ..16.2.16—9.55 PM


A-092 पता नहीं तुमको ..16.2.16—9.55 PM

पता नहीं तुमको 
कभी भूल पाऊँगा भी कि नहीं
कितना मुनासिब है 
ये समझ पाऊँगा भी कि नहीं
एक अदद मुलाकात की तलब 
पता नहीं बिन तेरे 
कभी मुस्कुरा पाऊँगा भी कि नहीं

लाख चेहरों में एक चेहरा तुम्हारा भी है
उसकी नज़र कभी उतार पाऊँगा भी कि नहीं
पता नहीं ये जज्बात किस काम के हैं
तेरे रुख़्सार पे वो काला सा तिल 
कभी छू पाऊँगा भी कि नहीं

तेरी मंजिल और रास्ते दोनों अलग हैं 
उन रास्तों पर कभी पहुँच पाउँगा भी कि नहीं
तूँ न सही मगर तेरी यादों के संग 
कभी रह पाऊँगा भी कि नहीं
तेरे लिए बहुत आसान हो सकता है 
मगर इस दर्द को 
कभी सह पाऊँगा भी कि नहीं....... 
कभी सह पाऊँगा भी कि नहीं

Poet; Amrit Pal Singh Gogia

A-064 किसको छोड़ूँ 16.2.16--2.34 AM


A-064 किसको छोड़ूँ  16.2.16—2.34 AM 

किसको छोड़ूँ और किसको याद करूँ 
किस किस लम्हे की अब मैं बात करूँ 

वो पहली मुलाकात मिल बैठे थे साथ 
वो प्यारा सा चुम्बन और हाथों में हाँथ 

कटीली मुस्कान जो बन गयी पहचान 
दो दिलों की धड़कन बन गयी मुकाम 

नयनों की फड़कन तटस्थ हो गयी थी 
मेरे दिल की हालत ध्वस्त हो गयी थी 

तेरे संजोये सपनों को अपना बता के 
उनका सिंगार कर उनको ही सजा के 

तुमसे प्यार किया मैंने अपना बता के 
तुम्हारे जिस्म पर अपना हक़ जता के 

कविता तुम्हें बताकर दिल में बिठा के 
पलकों पे सजाकर ख़ुद से ही छिपा के 

तुमसे मेरा मिलना कई बहाने बना के 
तुमसे छेड़छाड़ करना किस्से सुना के 

ख़ुद मजनू बन बैठा तुम्हें लैला बना के 
कुछ सपने संजोये कुछ तुमसे छिपा के 

अब जुदाई का दर्द मैं किसको बताऊँ 
दर्द है बहुत ज्यादा इसको कैसे छिपाऊँ 

किसको छोड़ूँ और किसको याद करूँ 
किस किस लम्हे की अब मैं बात करूँ 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”