Tuesday 14 June 2016

A-093 बचपन की कहानी 15.6.16—5.38 AM

A-093 बचपन की कहानी 15.6.16—5.38 AM  

बचपन की कहानी कितनी थी लुभानी 
कितनी भी पुरानी पर होती थी सुहानी 

कभी दादी तो कभी नानी की जुबानी 
लालची बन्दर या बिल्ली की कहानी 

खटिया बिछाये बीच आँगन में कहते 
कितनी भी गर्मी या पंखे झूलते रहते 

दूर बाहर कहीं पोखर में जाकर नहाना 
ढूंड लेते थे हम भी कोई न कोई बहाना  

बेरी पर चढ़ के हमने बेरी को हिलाना 
बेरी की बरसात देख बहुत मजा आना 

दूसरों के अमरुद तोड़ घर को ले आना 
पके भी निकलने कुछ कच्चे ही खा जाना 


बस्ते टाँगे हुए स्कूल को पैदल ही जाना 
पत्थरों को मारते हुए पत्तों को भी उड़ाना  

धूल मिटटी से कपड़े भी कितने सने होने 
माँ की पिटाई का डर से रोंगटे खड़े होने 

गणतंत्र दिवस पर वो नये सिले हुए कपड़े 
पंक्ति में लग जाओ एक दूसरे को जकड़े 

जन गण मन और जय हिन्द के गूंजते नारे 
दुश्मन को दिखा देते थे हम दिन में भी तारे 

कहाँ गया वो जोश उमंग हम ज़िंदगी से हारे 
क्यों बैठे हैं आज हम उसी ज़िंदगी के किनारे 

धारा प्रवाह बने बैठे थे कभी ज़िंदगी के खेवैया 
ज़िन्दगी आज भी वही है उठ कर देखो तो भैया 

हर उम्र के अपने तरीके अपना ही तकाजा है
सफ़ेद बालों का रुतबा बना वही तो राजा है 

कबूल कर देखो ज़िन्दगी के हर एक रंग को 
न कोई झगड़ा रहे “पाली” उमंग ही उमंग हो 
……………………उमंग ही उमंग हो


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

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