Saturday 25 June 2016

A-102 एक शीशा चरमराया 29.8.15—3.33AM

A-102 एक शीशा चरमराया -29.8.15—3.33AM 

एक शीशा चरमराया
कुछ समझ नहीं आया 
हमने तो बल्ला घुमाया
शीशा फिर कहाँ से आया   

कड़कती हुई आवाज़ गुर्राई 
हमने भाग कर जान बचाई 
तभी मम्मी की आवाज आई 
करनी नहीं है तुमने पढ़ाई 

हमने फिर से दौड़ लगाई 
जब मैंने गुल्ली उछलाई 
फिर जा शीशे से टकराई 
तिड़कने की आवाज़ आई 

हमने फिर से दौड़ लगाई 
लेनी पड़ी खेलों से विदाई 

अगले दिन एक नया खेल खेला 
लग गया देखने वालों का मेला 
फुटबॉल को एक किक दे मारी 
बोलना पड़ा अंकल जी को सॉरी 

अगले दिन फिर किया गुज़ारा 
अपने सभी दोस्तों को पुकारा 
गुल्ली क्या उड़ी, उड़ गया साला 
एक का उसने सिर फाड़ डाला 

वो चौका वो छक्का वो मारा 
देश आज़ाद हो गया हमारा 

कहते हैं देश आज़ाद हो गया 
मैंने कहा सब बर्बाद हो गया 
खेलने की आज़ादी तो है नहीं
बोलो मैंने ग़लत बोला कि सही 

देश आज़ाद हो गया 
लेकिन अन्य मायनों में 

नेता आज़ाद हैं 
अपराधी से गाँठ हैं 

डॉक्टर आज़ाद हैं 
दवाओं की बन्दर बाँट हैं 

शिक्षण संस्थाएं आज़ाद है 
व्यापारिओं के साथ हैं 

कानून रक्षक आज़ाद हैं 
अवसाद बनाने के लिए  

सरकारी अदारे आज़ाद हैं 
उनकी मनमानी के लिए 

पुलिस विभाग आज़ाद हैं 
अपराधियों की शरण गाह हैं 

अगर कोई आज़ाद नहीं हैं तो 
वो केवल एक आम इंसान हैं 

वो केवल एक आम इंसान हैं 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

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