Friday 1 July 2016

A-136 मनमानी 2.7.16—7.13 AM


भड़की हुई घटा बहकता हुआ पानी है 
थोड़ी छींटा कसी थोड़ी सी मनमानी है 
बारिश का मौसम है रात भी सुहानी है 
हवा के शोर है बहकती हुई जवानी है 

मत छुओ तुम मुझमें अग्नि भड़कती है 
बदन गीला है मुझमें हवस सरकती है 
कोमल मेरा दिल और रात वीरानी है 
तेरा करीब आना भी सनम बेईमानी है 

तुम भी बड़े जिद्दी हो कि सुनते ही नहीं  
इतने भोले नहीं कि कुछ बुनते ही नहीं 
तेरे बिना रहना भी तो जानो नादानी है 
ऐसे वायदों से ही निखरी ज़िंदगानी हैं 

मत लो इम्तिहान तो मानते भी नहीं हो 
बदन टूट रहा है तुम जानते भी नहीं हो 
सब्र करो थोड़ा बस यही तो नादानी है 
छेड़ते रहते हो यही आदत बचकानी है

तेरे बिना मुझे भी राहत मिलती नहीं है 
कली भी बेसमय कभी खिलती नहीं है 
अँधेरा आने दो रोशनी करे निगरानी है 
इसने भी तो करनी ख़ुद की मनमानी है 

कैसे मैं सुनूँ तेरे दिल की आवाज़ को 
सुहाना मौसम उसमें छिपे राज़ को 
हमारे अंतराल की यही तो कहानी है 
कुदरत की चाहत अग्नि भी बुझानी है 

मन मेरा भी हो रहा थोड़ा सा हरामी है 
चलो कर लेते हैं थोड़ी सी बेईमानी है 
तुम बेईमान बनो करो जो मनमानी है
वक़्त गुज़र जायेगा रात भी सुहानी है 


अमृत पाल सिंह 'गोगिया'

Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

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