Monday 31 July 2017

A-305 बड़े बेवफ़ा निकले 1.8.17—4.16 AM

A-305 बड़े बेवफ़ा निकले 1.8.17—4.16 AM 

बड़ी बफा जता बड़े अदब के साथ
तुम बेवफ़ा होकर यूँ ही चल निकले 

हम तो देख रहे थे तबस्सुम का फूल 
मुझे सज़ा देकर यूँ तुम जब निकले 

नहीं भूल पायेंगे तेरे इस अदब को 
कितने बेबफ़ा हो कैसे चल निकले 

पता है नहीं रह पायोगे मेरे बिना तुम 
खुद को सज़ा दे कैसे यूँ चल निकले 

बहुत भरोसा था मेरे क़दमों पे तुमको 
किस निशाँ के पीछे तुम चल निकले 

हर ज़िरह मेरी तेरे लिए मुबारक थी 
फिर क्यों ख़फ़ा हो तुम चल निकले 

भरोसा किसी पर तो आता ही नहीं था 
फिर किस सहारे यूँ कैसे चल निकले 

बड़े नासमझ हो रिश्तों के मुताल्लिक 
कैसे नया रिश्ता ढूँढ कर चल निकले

ठोकरें खाकर अभी अभी तो सम्भले थे 
कैसे और ठोकरें खाने को चल निकले 

पता है बड़े नाज़ुक मिज़ाज हो तुम भी 
ढूँढ लेना कोई जो दग़ाबाज़ कम निकले 

कभी तलब हो फिर किसी तरन्नुम में 
शायद पुराना ही बफादार बन निकले 

Port: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

Sunday 30 July 2017

A-303 मैंने खुदा से पूछा 25.7.17 9.00AM

A-303 मैंने खुदा से पूछा  25.7.17  9.00AM

मैंने खुदा से पूछा मेरे होने का सबब बता दे
खुदा मुझ से बोला असली चेहरा तो दिखा दे 

लाख कोशिश की असली चेहरे के मुतल्लिक 
सामने नहीं वो आता चाहे जन्नत ही लिवा दे 

दे दे मुझे वो लियाक़त चेहरा गुलाम हो जाये 
खुदा मुझसे बोला थोड़ा सच बोल के दिखा दे 

मेरे सच के पीछे भी मक्कारों की मंजिलें हैं 
उन मक्कारों से एक बार पीछा तो छुड़ा दे 

खुदा मुझसे बोला पापों की दुनिया है देखी 
एक दफा तू मुझसे उस दुनिया को मिला दे 

खुदा मुझसे बोला स्वार्थ को परे रख कर 
प्रेम की भाषा पढ़ एक रिश्ता ही निभा दे

यह कैसी सज़ा है जो मुझको दे रहा तू 
नुक्कर ही मुझे देदे मुझको तू छिपा ले 

मैं उलझता जा रहा हूँ तेरे जवाबों के घेरे 
मेरे ओछेपन से एक बार पर्दा तो हटा दे 

Poet: Amrit Pal Singh Gogia


Saturday 29 July 2017

A-301 मेरे पास 15.7.17--10.10 PM

A-301 मेरे पास 15.7.17--10.10 PM

मेरे पास क्यों का जवाब नहीं है 
जिंदगी हक़ीक़त है ख्वाब नहीं है 

तेरी प्रतिबद्धता है मैं समझता हूँ 
तेरी इसी बात पर तो मैं मरता हूँ 

मेरी ही कमियाँ मैंने ही सुधारनी हैं 
बढ़ा चढ़ा कर बात नहीं बघारनी है 

जो मेरा झूठ है वही सच बोलना है 
रिश्तों को अहम से नहीं तौलना है 

जरुरत है अपने आप से मिलने की 
अपनी गलतियाँ खुद ही सिलने की 

बल चाहिए स्वयं को जानने के लिए 
जिंदगी का हर रंग पहचानने के लिए 

तुम बीच में आये तो फिसल जायूँगा 
फिर ये बात तुमको कैसे समझाऊँगा 

कुछ तो मेरी अपनी ही कमजोरियां है 
कुछ बन गयीं मुझसे मेरी ही दूरियां हैं 

मेरे पास क्यों का जवाब नहीं है 
जिंदगी हक़ीक़त है ख्वाब नहीं है 


Poet; Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

Wednesday 26 July 2017

A-302 कितनी हसीन हो 21.7.17 --9.57 AM

A-302 कितनी हसीन हो 21.7.17 --9.57 AM

"सूरज को दीया नहीं दिखाया जाता 
कितनी भी ज्ञानी हो जायूँ 
आपके तो आस पास भी नहीं"

किसी ने प्यार से बताया
पर हमने नहीं जताया

"हमने इसका जवाब कुछ ऐसे दिया"

तेरी इसी मासूमियत ने 
ले ली है ज़न्नत मेरी
तेरी इसी चेहरे ने 
मुझको है लुभाया 
पर हमने नहीं जताया

यह कहाँ से आया 
कुछ समझ नहीं पाया 
तुम कितनी हसीन हो 
यह तुमने नहीं फ़रमाया 
पर हमने नहीं जताया

मेरे दिल से पूछो 
तेरे होने का सबब 
यह वो रिश्ता है 
बन के ख़ुदा जो आया 
पर हमने नहीं जताया

दिल में बसे रहते हो 
बन के इक जोत तबस्सुम 
तेरी आने की तलब ने  
जितना भी सताया 
पर हमने नहीं जताया

अपने दिल के रिश्तों की 
इक हसीन दुनिया है
इनको निभाया तो जाना 
जो भी समझ आया
पर हमने नहीं जताया

तेरी एक एक पद्दचाप 
बन जाती है धड़कन 
न सुने तो बढ़ जाती है 
हो जाता है सफ़ाया 
पर हमने नहीं जताया

Poet: Amrit Pal Singh "Gogia"

Monday 17 July 2017

A-108 तेरे अंजुमन में 7.3.16—8.09 AM

A-108 तेरे अंजुमन में 7.3.16—8.09 AM  

तेरे अंजुमन में ख़ामोशी का आलम  
लोग तन्हा हैं या दिल लगाये बैठे है 

कुछ हँसते मुस्कुराते गीत गाते हुए 
कुछ अपना चेहरा छिपाये बैठे हैं 

कुछ लोट पोट एकदम बेहोश हैं 
कुछ भृकुटि चेहरा चढ़ाये बैठे हैं 

कमर हिलाने का हुक्म नहीं जिनको 
वह भी पूरे जोश में आये बैठे हैं 

मुजरा कर दुनिया को रिझाते हैं जो
कहीं कहीं वो भी चोट खाए बैठे हैं 

जंगें जीत के जो बहादुर बन बैठे हैं 
वो भी कहीं कुछ खार खाए बैठे हैं 

बड़ी मुद्दत के बाद जो घर लौटे हैं 
कहीं हार का जश्न मनाये बैठे है 

कुछ मशरूफ हैं सुनने को आतुर 
कुछ बेचैन हैं कुछ बौराये बैठे हैं 

बेशर्मों की जमात भी देखी है आज 
कुछ तो रिश्ते तोड़ के आये बैठे हैं 

इश्क न कर "पाली" तू इस दुनिया से
लोग इसका भी मतलब बनाये बैठे हैं

Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”


Saturday 15 July 2017

A-239 बड़ी मुद्दत के बाद 17.2.17--2.00 PM

A-239 बड़ी मुद्दत के बाद  17.2.17--2.00 PM

बड़ी मुद्दत के बाद मिज़ाज शायराना हुआ 
कुछ ज़लज़ले दिखे, कहीं मुस्कुराना हुआ
एक एक हर्फ़ स्वयं कलमबद्ध होने लगा 
कोई जख़्मी हुआ और कोई दीवाना हुआ

नहीं हमें फ़िक्र कौन कितना ज़ख़्मी हुआ 
पिस रही थी मर्यादा जैसे सब रस्मी हुआ 
शम्मआ जल रही थी कौन परवाना हुआ 
आशिक़ मिज़ाज़ ही इतना दीवाना हुआ 

खुशबू बिखर रही उनके दामन से चिपक 
कैसे कोई दामन को थामे उसको लपक 
खौफज़दा है फिर थोड़ा मुस्कुराना हुआ 
थोड़ा ही सही मिज़ाज़ तो शायराना हुआ 

लौ भी कहीं पिस रही थी अँधेरे में उलझ  
इतनी काफी क्यों नहीं अब आया समझ 
रोशनी का होना मुनस्सर उस अँधेरे पर है 
जिस अंधेरे में गुनाह होते हैं अपना समझ 

कैसे अँधेरे से निज़ात पाएं बिना रोशनी के 
अंधेरा बहुत ज़्यादा है रोशनी भी तो है कम 
बहुत सारे चिराग हज़ूम बन के जब उभरेंगे 
अंधेरा भाग जायेगा न होंगी फिर निगाहें नम 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

Friday 14 July 2017

A-246 मेरी माँ 2.3.17--4.55AM

A-246 मेरी माँ  2.3.17--4.55AM

मैं माँ के क़रीब था कि माँ मेरे क़रीब थी 
पर इतना पता है कि माँ क़रीब थी 

मैं माँ का नसीब था कि माँ मेरा नसीब थी 
पर इतना पता है कि माँ नसीब थी 

मैं माँ का प्यारा था कि माँ मेरी प्यारी थी 
पर इतना पता है कि माँ प्यारी थी 

मैं माँ का दुलारा था कि माँ मेरी दुलारी थी 
पर इतना पता है कि माँ दुलारी थी 

मैं माँ का परिहार था कि माँ मेरी परिहार थी 
पर इतना पता है कि माँ परिहार थी 

मैं माँ की चिंता था कि माँ मेरी चिंता थी 
पर इतना पता है कि माँ चिंता थी 

मैं माँ को खेलाता था कि माँ मुझे खेलाती थी 
पर इतना पता है कि माँ खेलाती थी 

मैं माँ का सगा था कि माँ मेरी सगी थी 
पर इतना पता है कि माँ सगी थी

मैं माँ का सच था कि माँ मेरा सच थी 
पर इतना पता है कि माँ सच थी

मैं माँ का प्राण था कि माँ मेरी प्राण थी 
पर इतना पता है कि माँ प्राण थी

मैं माँ का अभिमान था कि माँ मेरा अभिमान थी 
पर इतना पता है कि माँ अभिमान थी

मैं माँ का हमदर्द था कि माँ मेरी हमदर्द थी 
पर इतना पता है कि माँ हमदर्द थी

मैं माँ का संसार था कि माँ मेरा संसार थी 
पर इतना पता है कि माँ संसार थी

मैं माँ का इमान था कि माँ मेरी इमान थी 
पर इतना पता है कि माँ इमान थी

मैं माँ का पहचान था कि माँ मेरी पहचान थी 
पर इतना पता है कि माँ पहचान थी

मैं माँ को खिलाता था कि माँ मुझे खिलाती थी 
पर इतना पता है कि माँ खिलाती थी

मैं माँ का फ़र्ज़ था कि माँ मेरा फ़र्ज़ थी  
पर इतना पता है कि माँ फ़र्ज़ थी

मैं माँ की तर्ज़ था  कि माँ मेरा तर्ज़ थी  
पर इतना पता है कि माँ तर्ज़ थी

मैं माँ की जान था कि माँ मेरी जान थी  
पर इतना पता है कि माँ जान थी

जिसका कोई सानी नहीं उस जैसी महारानी नहीं 
वही कृष्णा की माँ थी वही सुदामा की माँ थी 

वही मेरी भी माँ थी  वही मेरी भी माँ थी

Poet: Amrit Pal Singh Gogia "Pali"


Thursday 13 July 2017

A-266 मेरी मुलाक़ात 23.4.17--6.33 AM

A-266 मेरी मुलाक़ात 23.4.17--6.33 AM

आज स्वयं से मिल पाया मैं 
बरसात को देख घबराया मैं 
क्यों कर खफा हो जाता हूँ 
थोड़ा थोड़ा समझ पाया मैं 

खुद को समझ नहीं पाया मैं 
कुछ मलिन देख घबराया मैं 
कभी किसी को सुना ही नहीं 
न खुद को कभी सुन पाया मैं 

बहुत नितारा खुद विचारों को 
नसीहतें देता था मैं हज़ारों को 
स्वयं लागू नहीं कर पाया मैं 
यह बात समझ नहीं पाया मैं 

चिढ़ने की जो मेरी तमन्ना है 
कई बार उस से टकराया मैं 
हर बात पर चिढ़ मैं जाता हूँ 
बस इतना ही समझ पाया मैं 

एक सज्जन से मेरी बात हुई 
तीखे अनुभव की बरसात हुई 
उनकी प्रतिभा समझ पाया मैं 
नए अनुभव को घर ले आया मैं 

स्रोत पर सिर्फ एक काया है 
कुछ कारण व भय समाया है 
बाकी सब विवाद की उपज है 
यह जान खुद से टकराया मैं 

तुम अपने कारण की बात करो 
दूसरों पर न कोई इलज़ाम मढ़ो 
अपने भय को थोड़ा विश्राम दो 
दूसरों की सुनो अपना ध्यान दो 

सारा सुख इसी में तो समाया है 
मुझे अब जाकर समझ आया है 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

Friday 7 July 2017

A-220 रखो धागों को संभाल 11.12.16--6.47 AM

A-220 रखो धागों को संभाल 11.12.16--6.47 AM  

रखो धागों को संभाल के ये उलझ जाते है 
उलझ जाते हैं तो नहीं किसी काम आते हैं 
इनकी उलझन में ही दफ़न होता है सबका 
जब सिरा दिख जाता है तो निकल पाते हैं 

उलझना नहीं चाहते फिर भी उलझ जाते है 
बहुत करीब हैं इसीलिए कहीं फँस जाते हैं 
ढूँढ़ते हुए सहारा एक दूसरे का निकलने को 
मग़र स्वयं की जिम्मेवारी लेना भूल जाते हैं 

इनके दर्द को समझो बड़ा अजीब बताते हैं  
नहीं चाहते हुए भी खुद ही सबको सताते हैं  
ढूँढ लेते शिकायतें किसी न किसी कोने से 
मसला बिगड़ता है जब ये वाक़ई घबराते हैं 

सहारा ढूँढने वक़्त जब दवाखाने में जाते हैं 
नहीं मिलती सहूलियत तो बड़ा पछताते हैं 
मयखाने का सभाकक्ष ही मददग़ार होता है 
जब अपने दर्द को ख़ुद का नसीब बताते हैं 

उनकी उलझन को देखो कैसे समझ जाते हैं 
स्वयं की फँसी है दूसरे को तरतीब बताते हैं 
ज़िन्दगी के सारे नुख्से आज ही आजमा लो 
कहाँ मिलते हैं जज़्ब ऐसे मौके कहाँ आते हैं 

Poet: Amrit Pal Singh ‘Gogia’


Thursday 6 July 2017

A-294 तेरे कहने से 24.6.17—1.16 PM

A-294 तेरे कहने से 24.6.17—1.16 PM 

तेरे कहने से बधिर हो जाती  
तो कितने रूप ले लिए होते 
हर पल में नयी तस्वीर होती 
तुमसे बदले भी ले लिए होते

नहीं मुमकिन तेरी सोहबत में 
वर्ना मुकद्दर सिल लिए होते 
दूर भी कदापि न जाना पड़ता 
अहम् फैसले भी ले लिए होते 

तेरे इरादे न किसी काम आये 
ख़्याल तो फिर भी चलें आये
तेरे वादों की लड़ी है मुकम्मल 
वादे तो किये पर कौन निभाए 

हरकतों की हदें पार करना 
अब कुछ कुछ समझ आये
प्यार का तुमने नाटक किया
तभी तो तुम समझ नहीं पाये  

तेरे हुनर की क्या तारीफ़ करूँ 
कैसे लेते हो खुद को छिपाये 
सारी सारी रात बाहर रह कर 
कितने ही तुमने गुल खिलाये 

थोड़ी सी तवज़्ज़ो गर दी होती 
खिल जाते फूल बिना मुरझाये 
अब तो तुमने बहुत देर कर दी 
कुछ फर्क न पड़े अब पछताए 

Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

Wednesday 5 July 2017

A-296 आ जाया करो 9.8.2016—7.02 AM

A-296 आ जाया करो 9.8.2016—7.02 AM 

भोर की पहली किरण, कभी ओस कभी पवन
अपनी आभा के संग, बन के मेरे सनम 
आ जाया करो 

फूलों की पंखुड़ी, मखमल सा बदन 
खुशबू का इत्र बन, जब बिखरे है पवन 
आ जाया करो 

हवा की लहर बन, पत्तों के बहर संग 
थोड़ी सी उलझ कर, जब धुन बजने लगे 
आ जाया करो 

मौसम का आगाज बन, सावन का राज बन 
हवा जब हमराज़ बने, थोड़ा मुस्कुराया करो 
आ जाया करो 

सावन का गीत बन, हवा का मीत बन
कभी कोई गीत सुन, कभी सुनाया करो
आ जाया करो 

बारिश की बौछार में, बिजली की आड़ में 
फिसलन मनुहार में, बाँहों की बाड़ में 
आ जाया करो 

कभी एक याद बन, फुरसत की बात बन 
एक सुन्दर तस्वीर में, बदल जाया करो 
आ जाया करो 

पंछियों का गीत बन, बहके जब सुन्दर मन 
कभी तुम भी गाया करो, कुछ तो सुनाया करो 
आ जाया करो 

एक कटीली मुस्कान बन, चेहरे की पहचान बन 
आँखों में आँखें डाल, उनमें समा जाया करो
आ जाया करो 

Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”