बड़ी मुद्दत के बाद मिज़ाज शायराना हुआ
कुछ ज़लज़ले दिखे, कहीं मुस्कुराना हुआ
एक एक हर्फ़ स्वयं कलमबद्ध होने लगा
कोई जख़्मी हुआ और कोई दीवाना हुआ
नहीं हमें फ़िक्र कौन कितना ज़ख़्मी हुआ
पिस रही थी मर्यादा जैसे सब रस्मी हुआ
शम्मआ जल रही थी कौन परवाना हुआ
आशिक़ मिज़ाज़ ही इतना दीवाना हुआ
खुशबू बिखर रही उनके दामन से चिपक
कैसे कोई दामन को थामे उसको लपक
खौफज़दा है फिर थोड़ा मुस्कुराना हुआ
थोड़ा ही सही मिज़ाज़ तो शायराना हुआ
लौ भी कहीं पिस रही थी अँधेरे में उलझ
इतनी काफी क्यों नहीं अब आया समझ
रोशनी का होना मुनस्सर उस अँधेरे पर है
जिस अंधेरे में गुनाह होते हैं अपना समझ
कैसे अँधेरे से निज़ात पाएं बिना रोशनी के
अंधेरा बहुत ज़्यादा है रोशनी भी तो है कम
बहुत सारे चिराग हज़ूम बन के जब उभरेंगे
अंधेरा भाग जायेगा न होंगी फिर निगाहें नम
Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”
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