ररखो धागों को संभाल के ये उलझ जाते है
उलझ जाते हैं तो नहीं किसी काम आते हैं
इनकी उलझन में ही दफ़न होता है सबका
जब सिरा दिख जाता है तो निकल पाते हैं
उलझना नहीं चाहते फिर भी उलझ जाते है
बहुत करीब हैं इसीलिए कहीं फँस जाते हैं
ढूँढ़ते हुए सहारा एक दूसरे का निकलने को
मग़र स्वयं की जिम्मेवारी लेना भूल जाते हैं
इनके दर्द को समझो बड़ा अजीब बताते हैं
नहीं चाहते हुए भी खुद ही सबको सताते हैं
ढूँढ लेते शिकायतें किसी न किसी कोने से
मसला बिगड़ता है जब ये वाक़ई घबराते हैं
सहारा ढूँढने वक़्त जब दवाखाने में जाते हैं
नहीं मिलती सहूलियत तो बड़ा पछताते हैं
मयखाने का सभाकक्ष ही मददग़ार होता है
जब अपने दर्द को ख़ुद का नसीब बताते हैं
उनकी उलझन को देखो कैसे समझ जाते हैं
स्वयं की फँसी है दूसरे को तरतीब बताते हैं
ज़िन्दगी के सारे नुख्से आज ही आजमा लो
कहाँ मिलते हैं जज़्ब ऐसे मौके कहाँ आते हैं
Poet: Amrit Pal Singh ‘Gogia’
Sir awesome likhde o g
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