Saturday 30 April 2016

A-057 क्यों कैद कर रखा है 18.4.16—8.54 AM

क्यों कैद कर रखा है 18.4.16—8.54 AM

क्यों कैद कर रखा है देवी और देवताओं को
गुरुओं की अदाओं को महकती फ़िज़ायों को

पैगम्बरों के पैगाम को शिव भोले के जाम को
पवन पुत्र हनुमान को मेरे हनुमंत के राम को

ये पत्थर की दीवारें संगमरमर की मीनारें
ये छोटे छोटे खंडहर ये बड़ी बड़ी सभागारें

कहीं दीवारों पर टंगे कहीं पत्थरों में समाये
कहीं जल थल हुए रहे कही दूध संग नहाये

कौन सा फूल चढ़ाते हो कहाँ से लाते हो
अच्छा भला चढ़ा होता है उतार लाते हो

खिलते मुस्कराते को तोड़ मुर्दा बनाते हो
उसी का फूल तोड़कर उसी को चढ़ाते हो

जिसको तुम कहते हो भोग लगाया है
पता है कितने हाँथों से हो के आया है

उसी का दिया उसी को चढ़ाते हो
बाहर आकर फूले नहीं समाते हो

यह कैसा व्यंग है यह कैसा प्रसंग है
हिस्सा दे के कहते हो बहुत उमंग है

बिन मांग के गर प्रार्थना कर सकते हो
बिना प्रार्थना के शुक्राना कर सकते हो
शुक्राने के बिना रिझाना कर सकते हो
रिझाना भी क्या बुलाना कर सकते हो

वो तो भी आता है………………….पर

जब कोई कुछ नया कर के दिखाता है
वो भी अपनी दौलत खुल के लुटाता है
उसका अंतर्मन भी यूँ ही मुस्कराता है
उसके होने का एहसास पनप जाता है

तभी तेरा रोम रोम स्फुरित हो जाता है
ऐसे तो "पाली" सिर्फ वही आता है
…………………सिर्फ वही आता है

Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”




Thursday 28 April 2016

A-068 मेरी पड़ोसन 28.4.16—10.10 PM

 A-68 मेरी पड़ोसन 28.4.16—10.10 PM 

आज मेरी पड़ोसन बदनाम हो गई 
बचाने की कोशिश नाकाम हो गई

बहुत कोशिश करी जान छुड़ाने की 
ज़िद कर बैठी आज साथ जाने की

जहाँ भी जाता हूँ पीछे पीछे आती है 
न वो डरती है और न ही घबराती है 

बड़ी बेशर्म है शर्म भी नहीं आती है 
बस जब देखो चिपक सी जाती है 

दूर जाता हूँ तो करीब आ जाती है 
लाख समझाये समझ नहीं पाती है 

बड़ी निर्लज है चिपक ही जाती है
डरती किसी से नहीं न घबराती है 

अब बिल्कुल पीछे ही पड़ गई है
बहुत समझाया पर अकड़ गई है 
बना लिया मन दूर भाग जाने का 
दूर जाकर और मज़ा चखाने का 

वो फिर भी मेरे साथ हो लेती है
छिपती छिपाती मुँह मोड़ लेती है 
जवाब भी जनाब मुहँ तोड़ देती है 
घर लौट जाऊँ साथ छोड़ देती है 

मैं इसको भगाकर ही दिखाऊंगा 
दिमाग इसका ठिकाने लगाउँगा 
बर्दाश्त की आखिर हद होती है 
बेवकूफों की अक्ल मंद होती है 

परेशान होकर मैं घर को हो लिया 
तकिया सिरहाने रख मैं सो लिया 
बत्ती बुझायी तो वो ग़ायब हो गयी 
मैंने कहा कहीं साथ ही न सो गयी 

देखा कोई नहीं मेरी ही परछाई थी
तब यह बात मुझे समझ आयी थी 
और कोई नहीं मेरी ही परछाई थी 
बहुत प्यारी लगी बहुत ही भाई थी 


     Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

Sunday 24 April 2016

A-059 चेहरे पे चेहरा 25.4.16—6.19 AM


चेहरे पे चेहरा 25.4.16—6.19 AM

चेहरे पे चेहरा जो चढ़ा रखा है
हाल बेहाल क्यूँ बना रखा है
इतना बोझ उठाना ही क्यूँ है
जो खुद को तूने सजा रखा है

नकाब की कीमत देखो तो जरा
एक एक पल दुखी खून से भरा
दिल की बात तो दिल में दबी है
इससे बड़ी और क्या खुदकशी है

दोहरी जिंदगी दोहरा ये मापदंड
किसके लिए जीना लेकर घमंड
सजना सजाना किस के लिए है
सज कर देखो जो अपने लिए है

जहमत उठा कभी खुद को सँवारो
मज़ा जिंदगी का फिर देखना यारो
हर पल यूँ निकले ज्यों चंदा चमेली
खुशबू इतनी जैसे मिल गयी सहेली

एक बार सनम जब मेरे घर आये
हम उनको इतना भी नहीं कह पाए
रुक जायो जरा ठहरो पल दो पल
खिसकी चुनरी थोड़ा जायूँ सम्भल

कितनी दूरी है न बीच में नकाब है
कैसे मिले कोई बीच में ही आब है
तड़फ दिल की हर बात मन में है
आँखों में नीर जलन सारे तन में है

बस और नहीं, करनी सच्ची बात है
जिंदगी की ये आखिरी मुलाकात है
शर्म हया का चेहरा ही बदनसीब है
उनसे खुले में मिलना मेरा नसीब है

आओ एक दफा सच बोल के देखें
अपनत्व समझें दिल खोल के देखें
पर्दा न रहे किसी किस्म नकाब का
दूरियां भी न रहे लगे एक ख्वाब सा

चेहरे की चमक आँखों की दमक
हर अंग रहे अपने पूरे हाव भाव में
होठों पर एक मीठी सी मुस्कान
पैदा हुआ "पाली" भी इसी सवभाव में…..
पैदा हुआ "पाली" भी इसी सवभाव में…..