Wednesday 20 April 2016

A-045 कुछ भी 21.4.16—6.45 AM


कुछ भी 21.4.16—6.45 AM

यह कैसी ज़िंदगी है
यह किसकी बंदगी है
खुद की कोई आन नहीं
किसी की कोई पहचान नहीं
क्यूँ कि……कुछ भी पुराना नहीं

रस मैं कहाँ से लाऊँ
कौन सी कहानी सुनाऊँ
किसकी मैं बातें करूँ
किसके संग रातें रहूँ
क्यूँ कि……कुछ भी पुराना नहीं

मुस्कराना भला किस बात पे
हँसना हँसाना किस करामात पे
चीखना चिल्लाना किस बिसात पे
रोना आये तो किस मुलाकात पे 
शान्ति भी आये किस निजात पे
क्यूँ कि……कुछ भी पुराना नहीं

उदासी भी कहाँ से लाऊँ
रोना भी कैसे गुनगुनाऊँ
मन की उड़ान भी नहीं है
खोये की पहचान नहीं है
मैं भी जाने कहाँ खो गया है
अहम न जाने कहाँ सो गया है
लगता कुछ भी आना जाना नहीं है
क्यूँ कि……कुछ भी पुराना नहीं

किससे गिले शिकवे करूँ
किसकी भला शिकायतें करूँ
किसपर क्यूँ कर मैं वार करूँ
किसी पर क्यूँ मैं ऐतबार करूँ


क्यूँ कि कुछ भी जाना पहचाना नहीं
क्यूँ कि …………कुछ भी पुराना नहीं…….
क्यूँ कि …………कुछ भी पुराना नहीं…….

Poet; Amrit Pal Singh Gogia “Pali”


No comments:

Post a Comment