Thursday 30 July 2015

A-107 जब बात चली थी 11.5.15--5.00 AM

 A-107 जब बात चली थी 11.5.15-5.00 AM

कविता और मेरी जब बात चली थी 
कितनी नाजुक थी कितनी भली थी 

फिर हंगामा हुआ चर्चा भी चली थी 
पर यह बात किसी को नहीं फली थी

बड़े ऐतराज़ हुए बड़ा आक्रोश फैला 
कौन सी कविता और किसकी लैला

बहुत समझाया बचपन की सहेली है 
एक साथ पले-बढे मेरे साथ खेली है 

गुड्डे गुड्डियों का खेल मेला ये मेली है 
छूट गयी थी कहीं बन आई पहेली है 

मत पूछो मेरा सबब इसको लाने  का 
यह  किस्सा है शमा और परवाने का 

हम हमेशा साथ ही तो विचरते रहते थे 
बहुत मज़ा आता जब लड़ते झगड़ते थे 

लड़ने झगड़ने के बीच सपने पिरोये थे 
कई रातों को  तन्हा होकर भी सोये थे 

एक साथ उठना बैठना भी कहाँ होता है 
जब अपनेपन का एहसास दर्द पिरोता है 

नज़दीकियां देखीं है रोशनी के अभाव में 
तन्हाई भी विचरती देखी तारों की छाँव में 

हम घंटों उसका इंतज़ार किया करते थे 
आ जाये बस मुस्कुरा कर मिला करते थे 

न कोई गिला होता न कोई चेहरे पर शिकन 
जिस्म नहीं, होता था दो आत्माओं का मिलन


जिस्म नहीं, होता था दो आत्माओं का मिलन

Poet: Amrit Pal Singh Gogia "Pali"

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