Thursday 30 July 2015

A-154 माफ़ कर दो मुझे.. 26-4-15—1.54 PM

A-154 माफ़ कर दो मुझे.. 26-4-15—1.54 PM 

माफ़ कर दो मुझे मेरी ग़फ़लत के लिए
सजा भी मुकर्रर कर दो नफ़रत के लिए 

कुछ भी नहीं कहना मैंने अपने बचाव में
तुम्हें जो कहना कह दो अपने सुझाव में 

तुमने ज़िन्दगी दी यह अब भी तुम्हारी है
क्या फ़र्क पड़ता है जंग किसने हारी है

तुम्हारा वो दर्द मुझसे देखा नहीं जाता है 
इश्क़ मजनू बनकर दिल पर छा जाता है 

तुम्हारे दर्द की वैसाखी सीने लिए बैठा हूँ 
तुम्हारे जज़्बातों को जज़्ब किये रहता हूँ 

तेरी शिक़वा किसी सच्चाई से कम नहीं
कहता हूँ तू मेरी है मैं तेरा हूँ पर हम नहीं

तेरी आँखों का नम होना जो भी कहता है
दिल पत्थर करना पड़ता है तभी सहता है 

नीर जब टपके बन तदबीर तेरी गालों पर 
ज़िंदगी दिखती है उलझी हुई सवालों पर 

तेरे मुस्कुराने में तेरा बड़प्पन नज़र आता है
तेरा गले से लगा जाना सब कुछ बताता है

तेरे हाथों की बुर्की में वो प्यार का जादू है
उँगलियों का स्पर्श करे दिल को बेकाबू है 

चलो आज दर्द का थोड़ा हिसाब करते है 
सच्चाई से हम स्वयं को बेनकाब करते है 

गैरहाज़िरी में जाना क्यों तकरार करते है 
क्यों कि जानम हम तुमको प्यार करते हैं 



Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

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3 comments:

  1. Bahut badia likha hai Sahib

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  2. Thank your so much! For you appreciation!

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  3. वो इतने एहसान फ़रामोश निकलेंगे क्या मालूम था,
    हम तो आज भी दीवाने हैं उनके दीदार को तरसते हैं।।

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