उम्र के इस ढलान पर अँधेरा सा छाने लगा है
कैसे मैं सब्र करूँ अब हर कोई सुनाने लगा है
कोई भी तो नहीं है जो मेरे करीब हो
दिल का अमीर हो मन का गरीब हो
गिले शिक़वे शिकायतों से परे कहीं
सुन्दर सुहानी ज़िंदगी की तरतीब हो
मेरे नसीब में नहीं अब सुहानी ज़िंदगी
किसका सहारा और कैसे करूँ बंदगी
बीते कल के साथ जुड़ी हुई है गंदगी
कौन सी भविष्य कैसी होगी पसंदगी
परिवार का सहारा खिसकता सा है
आँसूओं के मोती बन बिखरता सा है
सपनों पर भरोसा कैसे कर सकती हूँ
सँवरता कुछ नहीं सब बिगड़ता सा है
नफरत से भरी और भी तन्हा हो गयी
बेचैनी आँखों में लिए हुए ही सो गयी
ज़िन्दगी इर्द गिर्द घूम कर पूछने लगी
अपने ख्यालों से खुद ही जूझने लगी
शिकायतों के संग कुछ भी मिला नहीं
उनको जब छोड़ा अब कोई गिला नहीं
नहीं चाहिए मुझे अब कोई भी गुफ़्तगू
मिल जायेगा मुझे जो कभी मिला नहीं
मेरा खुद का भरोसा बनने सा लगा है
श्रद्धा सुमन का फूल मचलने लगा है
कुछ नया नया आभास आने लगा है
मन का विश्वास कोई जगाने लगा है
जो बीत चुका उसकी क्यों बात करूँ
चलो एक नए युग की शुरुआत करूँ
पलों से पहले इस पल को मैं वार दूँ
इन्हीं नए पलों संग ख़ुद को संवार लूँ
Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”
Excellent
ReplyDeleteThank you so much Sir! For your appreciation and appreciation! Gogia
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