Monday 25 December 2017

A-113 सुबह की पौ 15.6.15 5:37 AM

  A-113 सुबह की पौ  15.6.15  5:37 AM 

सुबह की पौ भी फटने लगी है 
रोशनी भी अब बिखरने लगी है 
हरियाली थोड़ी निखरने लगी है 
फ़िज़ा भी थोड़ी बहकने लगी है 

चहल कदमी अब बढ़ने लगी है 
चिड़ियाँ भी अब चहकने लगी हैं 
रात की चादर सिमटने लगी है 
धूप भी खुलकर निखरने लगी है 

किरण भी छट-छट आने लगी है 
फ़िज़ा भी अब मुस्कुराने लगी है 
पंछियों की सरगम भाने लगी है 
कोयल भी सुरीला गाने लगी है 

ठंडी हवा के झोके आने लगे हैं 
हर बदन को छूकर जाने लगे हैं 
हवा के हिलोरे बल खाने लगे हैं 
कुछ हसी चेहरे मुस्कुराने लगे हैं 

सुबह की पौ भी फटने लगी है 
रोशनी भी अब बिखरने लगी है 

Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”


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