Monday 25 December 2017

A-156 मेरा मज़हब 31.07.2020 3.07 PM


मेरा मज़हब भी तुम मेरा सम्मान भी तुम 
मेरा रूतबा भी तुम मेरी पहचान भी तुम 
तेरे बिना तो मेरा जिस्म भी हिलता नहीं
मुझे ऐसा लगा कि मेरी कद्रदान हो तुम 

मोहब्बत पे शक क्यों करने लगी हो तुम   
दुविधा में फंसी उसी की मेहमान हो तुम
नज़रों का मिल जाना भी बेमुरव्वत नहीं 
फिर कैसी हया कितनी अन्ज़ान हो तुम 

मुझे पाने की इल्तिज़ा तुझे मक़बूल थी 
कैसे रह सकती जितनी परेशान हो तुम
तेरे जीवन से जुड़ी यह कोई भूल थी 
कैसा तकरार जब कि इत्मीनान हो तुम 

जानता हूँ कि तुम्हें निभाना भी आता है 
तुम निभा लोगी इसकी क़द्रदान हो तुम
बताओ तो सही कि क्या चाहिए तुम्हें 
सब कुछ दूँगा जिसकी हक़दार हो तुम 

जब दूर होने का फ़ैसला ले ही डाला है 
अब समझ जाओ कि जिम्मेवार हो तुम 
अगर मेरा साथ चाहिए तो मैं देता रहूँगा 
आखिर मैं नैया और मेरी पतवार हो तुम 

'पाली' तेरा था और सदा तेरा ही रहेगा 
फिर इसको लेकर क्यों परेशान हो तुम
बेशक कभी दिल के आईने में देख लेना  
मत हैरां होना क्यों कि मेरी जान हो तुम 

अमृत पाल सिंह 'गोगिया'









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