Monday 25 December 2017

A-149 नज़रें 29.12.15--5.44 AM

A-149 नज़रें 29.12.15--5.44 AM 

नज़रें बचाते रहे थोड़ा सा शर्माते रहे 
उनके क़रीब खिसके अपना बनाते हुए 

कभी मुस्कुराये कभी नज़रें मिलाते रहे 
अपनी किस्मत को ख़ुद आजमाते हुए 

मंजर बना तबस्सुम उनके आगोश में 
उनको क़रीब पाकर होश गवाँते हुए 

हजूम बन के आयी थी मोहब्बत मेरी 
झोकें में गवाँ बैठे उनको समझाते हुए 

समझाने का अर्थ अब समझ आया 
उनको मूर्ख बना उन्हें छोटा बनाते हुए 

अपना गरूर था जो मुझमें शामिल था 
उलझ गए अपने को ही गैर बताते हुए 

जुदा हुए उनसे तर्क-वितर्क की न्याय 
मन में बेमन मजनूँ का स्पर्श गाते हुए 

हर एक को इतला कर बैठा जल्दी में 
उनके गुनाहों की फ़ेहरिस्त दिखाते हुए 

अन्दर रो रोकर ग़म को हल्का किया 
बाहरी ख़ुशी से ग़म को नहलाते हुए

तब हर शख्श नसीहत देने लग पड़ा 
उनके भूल जाने का अदब बताते हुए 

थोड़ी सी ग़ैरत जो मुझमें कहीं होती 
गवाँ न बैठते उनको सज़ा सुनाते हुए 

शर्म आती है हमें अब अपने चेहरे से 
जब उनको देखा तड़प कर जाते हुए 

छोड़ देता मैं अगर किस्से कहानियाँ 
रोना न पड़ता न सब कुछ गंवाते हुए 


Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

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