Tuesday 12 December 2017

A-115 अंतिम विदाई 18.06.15–4.07 AM

A-115 अंतिम विदाई 18.06.15–4.07 AM 

एक पल पहले ही ज़िंदगी मुस्कुराई थी 
तुम मेरी बाँहों में कितनी पास आई थी 

एक पल और दे देते तो हम मना लेते 
ख़ुदा से लकीरों में इजाफ़ा करा लेते 

इतने अकड़ गए हो कि अब क्या कहूँ 
तुम तो निकल गयी हो पर मैं कैसे रहूँ 

तेरी नासमझी से हम बहुत परेशान हैं 
तेरे लिए बेफ़िक्री ज़िंदगी से निदान है 

क्या हुआ तुमको सुनती भी नहीं हो 
कहाँ गई बातें अब बुनती भी नहीं हो 

नैनों के इशारे से कितने काम कराये 
नीर भी नहीं अब जो कुछ तो जताये 

ऐसे भी भला रूठ कर जाता है कोई 
मुख से कुछ तो बोल मरजानी मोई 

क्या कहूँगा लोगों से बनती नहीं थी 
तेरे-मेरे बीच तो कभी तनती नहीं थी 

सुधर भी गया हूँ और सुधर जाऊंगा 
पर यह बात तुमको मैं कैसे बताऊंगा 

कैसे रोकी दिल की धड़कन बताओ न 
थोड़ा गुर मुझे भी दो थोड़ा सिखाओ न 

मृत्यु शय्या पर पड़ी कैसे मुस्कुराती हो 
तुमको शर्म नहीं आती मुझे चिढ़ाती हो 

इतने रंग क्यों भरे थे तुमने ज़िन्दगी में 
अब कैसे रहूँगा ज़िंदगी की बन्दग़ी में 

ख़ुद तो सो गयी मुझको भी सुलाओ न 
सोने वाली वो खरी खोटी ही सुनाओ न 

Poet: Amrit Pal Singh Gogia “Pali”

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